Monday 5 December 2016

Sakleshpur, The Green Land

             बोनस के रूप में मिले चिकमंगलूर के बाद फाइनली आज हम सकलेशपुर की सैर पर निकलने वाले थे। पहले दिन से बहुत थके होने के कारण सुबह आँख देर से ही खुल पायी। फिर सोचा दिनभर काफी घूमना है तो ब्रेकफास्ट होटल से ही करके चलते हैं जिससे फिर खाना मिले ना मिले तो कोई टेंशन ना रहे। इस समय साथ में एक ही जगह तीन छोटे बच्चे थे तो टाइम ज्यादा लगना अवश्यम्भावी था। इसलिए हम अच्छे से खा पीकर नौ बजे होटल से निकले। दोनों गाड़ियाँ एक दूसरे का साथ निभाते हुये आगे बढ़ रही थी।

Friday 2 December 2016

Chikmaglur: Land Of Coffee

 Travel date-9th October 2016      
        दक्षिण भारत के इन प्रसिद्ध मंदिरों की स्थापत्य कला के दर्शन करते करते दोपहर हो गयी थी। अब तक सूर्य भगवान शायद क्रुद्ध  अवस्था में आ चुके थे और बड़े बड़े पत्थरों से शोभायमान आँगन इतना तप गया था कि पैर जमीन पर रखना मुश्किल हो गया। जल्दी जल्दी इस गर्म प्रदेश से से हम चिकमगलूर के लिए रवाना हुए, वैसे जल्दी भी क्या कहा जाये बारह तो बज ही गया था। साउथ में बहुत हिल स्टेशन हैं लेकिन उत्तराखंड के निवासियों के लिए यहाँ के हिल स्टेशन उतना अधिक आकर्षण वाले नहीं होते हैं, अभी तक तो यही लग रहा था  कि बस जाना है किसी पहाड़ी जगह। 

Thursday 10 November 2016

Belur-Helibedu

     Travel date-9th October 2016  
           आज के दिन का प्लान पहले सकलेशपुर लोकल घूमने का था लेकिन फ़ोन से पता लग गया था कि आज हमारे साथी बैंगलोर से आ रहे हैं तो हमने सोचा कि यहाँ की घुम्मकड़ी साथ में करेंगे। इसलिए आज के दिन में हमने श्रवणबेलगोला के बाकि बाकि साथी बेलूर और हलिबेडू के साथ चिकमगलूर घूमने का निर्णय लिया। आज भी हम होटल से आठ बजे ही निकल पाये अभी बेलूर जाने के लिए हमें छत्तीस किलोमीटर जाना है। जाते समय हम सकलेशपुर अरेहल्ली रोड से गए।  सड़क थोड़ा संकरी होते हुए भी बुरी नहीं थी। हमने इस रास्ते का चुनाव इसके थोड़ा छोटा होने की वजह से किया ,अगर थोड़ा ज्यादा टाइम हाथ में हो तो बेलूर सोमवारपेट रोड का चुनाव भी किया जा सकता है, ये सड़क ज्यादा अच्छी है। रास्ते में हरियाली देखते हुए हम एक दो जगह रुके और एक घंटे में बेलूर पहुँच गए।

Wednesday 2 November 2016

Drive to Sakleshpur:Shravanbelgola

                अक्टूबर का महीना अपने साथ कई सारे त्योहारों का उल्लास ले के आता है, कहीं बड़े बड़े दुर्गा पूजा के पंडाल सजते हैं तो कहीं गरबा/डांडिया की धूम मचती है। गरबा/ डांडिया तो अपनी सोसाइटी में हमने नवरात्री के प्रारंभिक दिनों में खेल लिया। इन सबके अतिरिक्त अक्टूबर में दशहरे की लम्बी छुट्टियाँ भी होती हैं, मतलब घूमने का कीड़ा जागने वाला समय होता है। मैं दशहरे के समय में शायद ही कभी बैंगलोर में रही होंगी। एक बार गोवा चले गए थे और पिछले दो सालों से हम इन दिनों उत्तराखंड प्रवास पर थे। इस बार कहीं जाने का उतना खास विचार नही बन पा रहा था लेकिन छुट्टी देखकर मन ललचा जरूर रहा था। इतने में पिछले सन्डे को बैंगलोर में रहने वाले भाई का फ़ोन आया घर आ जाओ इतनी छुट्टी हैं साथ में मिलकर प्लान करते हैं और साथ में बैठकर हम लोगों ने कर्नाटक के पश्चिमी घाट में स्थित सकलेशपुर   जाने का विचार बना लिया।
            प्लान कुछ इस तरह से किया गया कि बैंगलोर से सकलेशपुर जाते समय श्रवणबेलगोला में स्थित बाहुबली की मूर्ति देखते हुए जाएंगे और अगले दिन सकलेशपुर लोकल देखा जाये।  वापसी में बेलूर हलीबेडू के दर्शन करते हुए आ जायेंगे। इसी हिसाब से दो दिन के लिए दो कमरे बुक करा लिए। लेकिन जाने के दो दिन पहले भाई के ऑफिस का कुछ अर्जेंट काम आ गया तो वो बोलने लगा तुम लोग जाओ, मेरा काम निपट गया तो मैं अगले दिन आ जाऊंगा पर कुछ पक्का नहीं है सब काम के ऊपर ही है। अब तक हमारा भी उत्साह कुछ ठंडा हो गया। फिर लगा जब एक बार प्लान बन ही गया तो अब जाना तो है ही।
Travel date-8th October 2016
               इस यात्रा का प्रारम्भ ही लेट लतीफी के साथ हुआ और हम घर से आठ अक्टूबर की सुबह साढ़े नौ बजे नाश्ता कर के निकले। इलेक्ट्रॉनिक सिटी से नाइस रोड पकड़ कर चालीस किलोमीटर नीलमंगला तक पहुंचे और यहाँ से आगे बैंगलोर-मंगलौर हाईवे में जाना था। ये टॉल रोड है और खूब जमकर टॉल पड़े हालाँकि रोड की हालात भी टॉल  के हिसाब से अच्छी ही थी। कुल मिलाकर दो सौ साठ किलोमीटर में दो सौ नब्बे रुपया टॉल टेक्स के रूप में धरा लिया गया। नीलमंगला से तीस किलोमीटर आगे शार्क फ़ूड कोर्ट में हम चाय के लिए रुके। यहाँ पर आधे घंटे का स्टॉप हो गया। इसके बाद सत्तर किलोमीटर  बैंगलोर मंगलौर हाईवे में ही चलना था और हेरीसवे नाम की जगह पर श्रवणबेलगोला के लिए कट लेना था। इसी रोड में नब्बे किलोमीटर चलकर हम श्रवणबेलगोला पहुँच गए। रास्ते में एक जगह से दिखाई पड़ी एक बड़ी सी चट्टान और उसमे बनी सीढ़ियों में चढ़ते लोगों का मेला।  गाड़ी पार्किंग में डाल के हम लोग चट्टान की तरफ आगे बढे।  एक जगह जुते चप्पल जमा करा के अपने मोज़े पहन लिए। ऐसा कहा जाता है कि दोपहरी धूप के कारण चट्टान गरम हो जाती है तो नंगे पैर चलना मुश्किल हो जाता है। अगर घर से ना भी लाये हों तो यहाँ पर दस रूपये में मोज़े बेचने वाले खूब घूमते हैं। 
           कर्नाटक के हासन जिले में स्थित श्रवणबेलगोला जैन धर्मस्थल होने के साथ साथ भारत के सात आश्चर्यों  में से एक है। एशिया की बड़ी चट्टान में से एक विन्ध्यगिरि नाम की पहाड़ी में गोमतेश्वर की, जिन्हें बाहुबली के नाम से भी जाना जाता है कि अट्ठावन फ़ीट ऊँची मूर्ति है। यहाँ पर कई सारे तीर्थकरों की छोटी बड़ी प्रतिमाएं बनी हुयी हैं। यहाँ से नीचे को बहुत अच्छे द्र्श्य दिखते हैं। सामने से एक पानी का तालाब दिखाई देता है, ऊपर से देखने में मजा तो बहुत आता है लेकिन यहाँ तक पहुँचने ले लिए छह सौ चालीस सीढियाँ चढ़नी होती है। जिनमे से कुछ तो सामने से ही नजर आ जाती हैं और करीब तीन चौथाई सीढियाँ चढ़ने के बाद चट्टान में थोड़ा थोड़ा तिरछा चलते हुए आगे बढ़ना होता है।  इसके बाद बाकि की सीढियाँ छुपे हुए रूप में सामने आती हैं। वैसे ठीक ही वरना नीचे से आने वालों की हिम्मत बंध पाना मुश्किल हो जाता है। यहाँ थोड़ा देर इधर उधर करने के बाद हमने नीचे का रुख किया। चढ़ने के मुकाबले उतरना हमेशा आसान होता है लेकिन सीढ़ियों में हल्का ढाल होने के साथ कुछ चिकनाहट की वजह से हलकी फिसलन भी थी तो काफी सावधानी की जरुरत थी। नीचे उतर कर पेट पूजा की बारी आयी और हम सुरंगा जैन नाम के एक मारवाड़ी रेस्तरां में पहुँच गए। यहाँ खाना अच्छा था लेकिन बाद में पता लगा कि इधर एक जैन मेस भी है जिसमे खाना मुफ्त में मिल जाता है। 
            इसके बाद गाड़ी निकालकर हम सकलेशपुर के रास्ते में चल पड़े, अभी भी हमारे रास्ते के नब्बे किलोमीटर बचे हुए थे और अब थोड़ा पहाड़ी रास्ता होने के साथ सिंगल लेन रोड में जाना था। हालाँकि यहाँ के पहाड़ उत्तराखंड या हिमाचल जैसे ऊँचे नहीं होते लेकिन हलके हलके घुमावदार होते हैं,अब कुछ कुछ हरियाली दिखने लगी थी जिसके लिए सक्लेशपुर को जाना जाता है। इस तरह से शाम के साढ़े छह बजे हम सकलेशपुर पहुँच गए। 
यात्रा के चलचित्र-
हाईवे 
रास्ते के खेत।  
ऐसी किसी जगह में अपना भी झोपड़ा हो तो मजा आ जाये। 
श्रवणबेलगोला की सीढियाँ। 
ऐसी चट्टान को काटकर सीढियाँ बनाई है।  
आधे से ज्यादा रास्ता तय हो गया। 
मंदिर या कहो व्यू पॉइंट्स 
जगह जगह पड़ी चट्टाने 
व्यू पॉइंट। 
बाहुबली।


नीचे दिखती सीढियाँ।  
इनके नीचे चट्टान पर जाईंयों ने अभिलेख लिखे हैं। 
नीचे का तालाब। 
सुरंगा जैन।
इस यात्रा की समस्त कड़ियाँ -
Drive to Sakleshpur:Shravanbelgola
Belur-Helibedu
Chikmaglur: Land Of Coffee
Sakleshpur, The Green Land

Thursday 20 October 2016

Lumbini park

                    2011 से 2016 तक हमारा निजामो के नगरी हैदराबाद आना जाना लगा ही रहा, या यूँ कहूँ वहाँ से संपर्क नहीं छूटा ही नहीं। एक बार 2014 में क्रिसमस की छुट्टियों के समय पर जाना हुआ तब हमने उन जगहों को देखा जो कि पहली बार में रह गए थे। इस बार हमारी यात्रा का प्रारम्भ लुम्बिनी पार्क में होने वाले लेज़र शो को देखने के साथ हुआ लेकिन रात का समय होने के कारण हम इस बार भी लुम्बिनी पार्क के अन्य आकर्षण नहीं देख पाये। इस पार्क ने हमें 2016 फरवरी में पुनः अपनी और आकर्षित किया और इस बार हम यहाँ पूरे दिन का समय ले कर गए। देखिये ऐसा क्या खास है इस पार्क ने जो इतनी बार मुझे वहां ले कर गया।

Friday 14 October 2016

Charminar,Hyderabad

               आज के दिन में हमारा चारमीनार घूमने,फिल्म देखने और एनटीआर गार्डन होते हुए लुम्बिनी पार्क के लेज़र शो को आन्नद लेने का प्लान था। जब पूरा दिन घूमना ही था तो हमने बस का पास के लिया और पहुँच गए चन्दा नगर से पुराने हैदराबाद में स्थित चार मीनार। मुसी नदी के मुहाने पर बनी इस ताजिया पद्धति की मीनार का निर्माण मुहम्मद क़ुतुब शाह अली ने सन उन्नीस सौ इक्यावन में गोलकोंडा से अपनी राजधानी हैदराबाद में शिफ्ट करने से पहले बनवाया। हैदराबाद के स्मारक के रूप से सबसे पहले इस मीनार का निर्माण हुआ और उसके बाद इसके चारों और शहर को बसाया गया। इतिहासकारो के अनुसार कहते हैं कि जब सन उन्नीस सौ इकावन में शहर में प्लेग की बीमारी फ़ैल गयी थी तो सुल्तान मुहम्मद क़ुतुब शाह अली ने इसका निर्माण रक्षा के उद्देश्य से कराया था। जैसा की इसके नाम से ही दृष्टिगोचर हो रहा है यहाँ पर चार कोनो में चार पिलर बने हुए हैं और उनको मिलाते हुए दीवारों के बने होने से ये चतुर्भुजाकार के रूप में बनी है और चारों मीनारों के टॉप में गुम्बद बने हैं। ऐसा माना जाता है कि इसमें खड़ी हुयी मीनारें सुल्तान और उसकी बेगम के उन चार हाथों के प्रतीक हैं जो कि प्लेग मुक्ति के लिए दुआ में करने को उठाये गए थे। रात के समय इसमें रौशनी करी जाती है जिससे ये पूरी तरह जगमगाने लगती है।
चार मीनार 

Tuesday 11 October 2016

Ramoji Film City

              फंडूस्तान के बाद अब चलते हैं, रामोजी की भव्य फिल्मी सेट्स वाली नगरिया में। जहाँ सामने से दिखाई देता है मुग़ल गार्डन, और भव्यता के क्या कहने, देखो तो लगता है कि असली वाला मात खा जायेगा इसके आगे । यहाँ से बस ले के जाती है जयपुर के महलों में, ये महल थोडा उंचाई पर बना है और यहाँ से फिल्म सिटी का अविस्मरणीय द्रश्य दिखता है। महल से नीचे उतरते ही एक तरफ कात्यानी गार्डन है और वहां से आगे बढ़ो तो एक तरफ जापानी  गार्डन नजर आता है एवं  दूसरी दिशा में  सैक्चुरी गार्डन,इस गार्डन में तार के खांचों पे घास की कतरे चढ़ा कर विभिन्न आकृतियाँ बने गयी है, यहाँ जिस दिशा में नजर डालो वहां हरे - हरे जानवर दिखाई पड़ते है यहाँ पर तो.उसके बाद लास्ट में करिज्मा गार्डन देखा यहाँ पर चहूँ और फूल ही फूल देखने को मिले और सामने बनी हुयी सड़के तो ऐसी थी की लगता ही नहीं कि हम भारत में ही घूम रहे हैं।

Tuesday 2 August 2016

Ramoji Film City- Fundustan and ToyLand

              हैदराबाद श्रृंखला का प्रारम्भ करते हैं सितम्बर,2011 से।तब अपना ही घर था वहां तो सेन्डविच और चाय का नाश्ता कर के सुबह नौ बजे घर से निकल पडे । गाड़ी नहीं होने की वजह से या तो ट्रेन से घुमा जा सकता था या फिर बस द्वारा।हम लोगों को बस से घूमना ज्यादा उचित लगा तो बस का पास ले लिया। हैदराबाद की बस सेवा बहुत अच्छी लगी।यहाँ हमें कहीं पर भी ज्यादा से ज्यादा ५ से १० मिनट रुकना पड़ा और सभी बसों में किस स्टॉप से कौन सी गाड़ी ले भी अच्छे से बता रहे थे। कुल मिलाकर बस से घुमने में बहुत मजा आया। रामूजी अगर घूमना हो तो वहां पूरा दिन ले कर के जाना सही होता है। रामूजी फिल्म सिटी दुनिया की सबसे बड़ी फिल्म सिटी है, और इसका नाम गिनिज बुक में भी दर्ज है। बचपन में एक बार ऑफिसियल वर्क के लिए मेरे पापा का वहां जाना हुआ तो काफी सुना था उनसे यहाँ के बारे में, तो कई सालों से देखने का मन था और अब देखने का मौका भी मिल ही गया।

Tuesday 26 July 2016

Road trip to Hyderabad

Travel date-24th december 2014      
      हैदराबाद, आज से करीब पाँच वर्ष पूर्व जब मैं पहली बार यहाँ गयी थी तो मुझे इस बात का जरा सा भी अंदाजा नहीं था कि दक्षिण के पठार और मूसी नदी के किनारे बसी इस जगह में घूमने के लिए इतने सारे और सब के सब विभिन्न प्रकार के स्थान होंगे। आज के समय में आईटी के लिए जाने वाला ये शहर कभी निजामों के नजाकत और नफासत के लिए प्रसिद्ध रहा है तो कभी यहाँ पर बहुतायत में बिकने वाले मोतियों के वजह से पर्ल सिटी के रूप में। यह जगह देश के लगभग सभी बड़े शहरों से वायु, रेल और सड़क मार्ग द्वारा अच्छे से जुड़ा हुआ है।

Thursday 21 July 2016

Hawa Mahal and Jantar Mantar,Jaipur

         आमेर के बाद हमारी यात्रा का अगला लक्ष्य था पेट पूजा करने के बाद हवा महल के दर्शन करना। इतने में ड्राईवर साहब बोले पुराने जयपुर के लक्ष्मी मिष्ठान भंडार में ही खा लेना और उसके बाद हवा महल देख लेना। इसका नाम काफी घुमक्कड़ मित्रो से सुना हुआ था तो हमने रजामंदी दे दी। पुराने जयपुर पहुंचे ही थे कि पेट में जोरों से चूहे कूदने लगे जैसे कह रहे हों बस अब हो गया और इंतजार नहीं होता। जब भूख लग ही गयी थी तो रुकने के अतिरिक्त और विकल्प नहीं बचा था इसलिए हम पास में ही एक ठीकठाक सा साफ़ सुथरा रेस्तरां देख कर बैठ गए। हमने दो स्पेशल थाली और बेटी के लिए मैंगो शेक का आर्डर दिया। खाने की गुणवत्ता अच्छी थी। तीन चार प्रकार की सब्जी और दो नॉन एक प्लेट में मिले,ऊपर से रायता और चावल अलग से।जल्दी जल्दी में खाना निपटाया और हवा महल की तरह का रुख किया। सुबह आते समय एक अलग ही पुराना जयपुर दिखा था, इस समय अलग ही नज़ारे दिखे। खुली खुली दुकाने, दुकानों में लटके कपडे। देखने से ही लग रहा था कि अच्छे मतलब सस्ते दामों में सामान मिल जाता होगा।पर हमारा लक्ष्य तो कुछ और ही था। हमें हवा महल पहुँचने की जल्दी थी। पुराने जयपुर की दुकानों पर नजर डालते हुए हम हवा महल पहुँच गए। गुलाबी रंग की इस पांच मंजिला इमारत में नौ सौ तिरेपन झरोखे बने हुये हैं। इन्ही झरोखों से राज परिवार की रानियाँ बाजार की रौनक देखा करती थी।इनमे भी बारीक़ सी जालियां लगी थी जिससे बाहर तो दिख जाये पर अंदर कोई ना देख सके। रानी महारानियों को पर्दा प्रथा के कारण खुले में बाहर निकलने की अनुमति नहीं होती थी। कभी कभी बहुत तकलीफ सी होती है इनके बारे में सोच कर, शायद सोने के पिंजरे में बंद चिड़िया की जैसी अवस्था होती होगी इनकी। होने को तो सब कुछ ही होगा पास में ,बस उड़ान भरने को पंख नहीं होंगे। किसी को देख नहीं सकते, दुनिया के सामने जा नहीं सकते,अपनी मर्जी से जी नहीं सकते।अगर किसी कारण विशेष से निकलना पड़ ही जाये तो लंबा सा घूँघट ओढ़ना तो अति आवश्यक ही हुआ। पर ये क्या, ये तो एक कैदी की सी अवस्था हुयी। या कहो कैदी का जीवन भी थोड़ा बेहतर होगा वो इस आस में जी लेता होगा कि कभी ना कभी तो उसकी सजा ख़त्म होगी ,पर इनकी सजा तो जन्म के साथ शुरू हो कर मृत्यु के साथ ही समाप्त होती होगी। हालाँकि इन झरोखों से क्या नजर आता होगा, जैसा खुली आँखों से खुले आसमान के नीचे लगता होगा। फिर भी भला हो सवाई प्रताप सिंह का जिसने इसे बनवाया। कुछ नहीं से तो थोडा बहुत दिखना ही अच्छा हुआ। बड़ी ही आकर्षक बनी है ये इमारत, जैसी फ़ोटो में दिखा करती थी ठीक वैसी ही लगी। इन झरोखों के आस पास रंग बिरंगे कांच लगे हुए हैं जो कि देखने में अच्छे लगते हैं और थोड़ी थोड़ी हवा भी आ रही थी, शायद इसी कारण इसे हवा महल कहते हों।
               यहाँ पर हमने ज्यादा समय नहीं व्यतीत किया और हवा महल के पीछे से होते हुए आगे बढ़ गए। इसके पिछवाड़े में भी कई सारी दुकाने बनाई गयी हैं। थोडा थोडा दिल्ली के चांदनी चौक जैसी जगह लग रही थी ये। पतली सी गलियाँ और ढेर सारी छोटी छोटी दुकाने। अब हमारा इरादा सीधे रेलवे स्टेशन जा के आराम फरमाने का सा था, पर रास्ते में ड्राईवर बोला सामने से जंतर मंतर दिखाई दे रहा है, अभी तो ट्रेन के आने में टाइम है थोड़ी देर जा के नजर एक नजर मार ही आओ जब गेट के पास खड़े ही हो तो। मन नहीं होते हुये भी उसका कहना मान कर हम उतर तो गए और मन में अफ़सोस मना रहे थे कि इतनी गर्मी तो नहीं थी फालतू में ही हम डर गए एक दिन रुक ही जाते तो अच्छा होता। पर जंतर मंतर में हमारा ये भ्रम बहुत अच्छी तरह से दूर हो गया। दोपहर में शायद एक से डेढ़ बीच का समय रहा होगा जैसे ही यहाँ पर एक दो खगोल यंत्र देखने शुरू किये गर्मी ने चपेटे लगाने शुरू कर दिए। मैं और सानवी तो एक जगह छाँव में विराजमान हो गए और ये कुछ यंत्रों को देखने के लिये आगे बढे। यहाँ पर मैंने कोई भी चीज ढंग से नहीं देखी और जो थोडा बहुत देखने का सोचा तो गर्मी ने होश उड़ा दिए। यहाँ पर दो तीन पानी की बोतल फटाफट खर्च हो गयी और यहाँ से भागे भागे जयपुर रेलवे स्टेशन पहुंचे। यहाँ पर हमको टेक्सी वाले ने एक रेस्तरां के पास उतारा। वो बोला आप यहीं से होते हुए चले जाओ तो छाया छाया में पहुँच जाओगे, फालतू में ही गेट से जाने पर लाइन में लगना पड़ेगा। अब हम यहाँ के सो कॉल्ड वातानुकूलित वेटिंग रूम में पहुंचे। बाहर से देखने पर ही मामला समझ आ गया। ऐसी था तो सही पर चल नहीं रहा था, उसके बदले पंखों से काम चलाया जा रहा था और भीड़ तो इतनी थी कि जैसे खड़े होने की भी जगह ना हो। यहाँ पर पता लगी जयपुर की असली गर्मी। खैर किसी तरह से ये समय कट गया और अपनी रानीखेत एक्सप्रेस आ गयी।  यहाँ के कठिन अनुभव के बाद उसकी सीट में बैठकर तो ऐसा लगा जैसे हम किसी आरामदायक सोफे में बैठे हों। हमने बुकिंग कराते समय ही साइड अपर और साइड लोअर सीट को प्राथमिकता दी थी, जिससे कि अपने हिसाब से सोना और बैठना कर सके। थोड़ी देर में हम तीनो बढ़िया नींद में थे और तब तक खाने वाला आ गया। दो प्लेट खाना मंगवा लिया । मंगा तो लिया पर अब खाओ कैसे बहुत ही थर्ड ग्रेड का खाना। पैसे लेते समय तो पनीर की सब्जी और फुल्के कहते हैं और देते समय मिर्ची का सालन और कड़कडे पापड़। मरता क्या ना करता वाली स्थिति थी अब भूख तो मिटानी ही थी, तो किसी तरह से कुछ निवाले हलक से नीचे उतारे। खाने के बाद थोड़ी देर गप करते और जयपुर के फ़ोटो देखते हुये कब नींद आई पता ही नहीं लगा और सुबह सीधे हल्द्वानी में ही आँख खुली।
यात्रा की कुछ झलकियां-

हवा महल।

हवा महल।
जयपुर के बाजार ।
जयपुर के बाजार।
यहीं कहीं से एक छोटे बच्चों का लहंगा लिया था।
जंतर मंतर।
जंतर मंतर
जंतर मंतर।






        जयपुर यात्रा-
        इस यात्रा की अन्य कड़ियाँ -

Tuesday 12 July 2016

Amer Palace,Jaipur

                   जयगढ़ फोर्ट के वैभव को देखकर नीचे उतरे तो प्रवेश द्वार के पास ही हमारा चौपहिया वाहन खड़ा था, अब एक बार फिर इसमें सवार होकर वातानुकुलित माहौल का लाभ उठाने का समय आ गया था। इसमें बैठकर हम ड्राइवर से आमेर के किले में जाने के विषय में चर्चा करने लगे,इतने में  तो वो बोला यहाँ पर मिनी ताजमहल भी है उसे देखते हुए जाओ। हम दोनों ही इस बात में इंटरेस्टेड नहीं थे,क्यूंकि अगर ताज महल ही देखना हो तो असली का देखेंगे मिनी ताज क्यों। फिर भी वो मना करने के बाद भी काफी जोर डालने लगा कि पांच मिनट ही तो लगेगा देख लो और उसने हमें एक शॉप  बाहर ला कर छोड़ दिया। शॉप देखकर के समझ आया कि माजरा तो यहाँ कमीशन खोरी का था और उसी वक्त हम दुबारा से गाड़ी में बैठ गए और उसे बोला कि सीधे से आमेर पहुंचा दे हमको कहीं इधर उधर नहीं जाना।  इस प्रकरण में दस से पंद्रह मिनट बर्बाद हो गए,खैर उसने आमेर के किले तक हमको पहुंचा दिया। इस प्रकार की घटनाओं से बड़ी खीज हो जाती है जब एक बार मना कर दिया तो फिर बार बार वो ही बात क्या करने का क्या औचित्य हुआ। यहाँ पर हमारे पास डेढ़ घंटे का टाइम था आमेर का किला  घूमने के लिए।  जल्दी जल्दी में टिकट लिया और टिकट के साथ ही एक  गाइड से  भी बात कर ली कि हमें यहाँ की मुख्य मुख्य चीजें दिखवा दे।
माअोथा झील,आमेर पैलेस और जयगढ़ दुर्ग। 

Thursday 19 May 2016

Jaigarh Fort,Jaipur

                  जल महल के दर्शन करने के बाद हम जयगढ़ दुर्ग जाने के लिए आगे बढ़ रहे थे, रास्ते में कई सारे हाथी पंतिबद्द हो कर वापस आते हुए दिखाई दे रहे थे जो आमेर के किले में पर्यटकों को सवारी करा के वापस आ रहे थे। ये सोच कर दुःख भी हुआ और आश्चर्य भी कि कैसे जब इतनी गर्मी में जब इंसानो का खुद का चलना मुश्किल होता है तो ये बेचारे जानवर कैसे अपने साथ इतने लोगों का भार उठा कर चलते होंगे। जल महल से इस किले की दूरी ग्यारह किलोमीटर की है। यहाँ से  जयगढ़ फोर्ट रोड  पर आगे बढ़कर हुए हम एक ऐसी जगह पर पहुंचे जहाँ से मान सिंह लेक के मध्य में विराजमान जल महल और कनक घाटी के अद्भुत दर्शन हो रहे थे।
कनक घाटी। 

Saturday 14 May 2016

Pink City, Jaipur

                    कभी कभी कुछ यात्रायें बिना सोचे हुए अनायास ही बोनस में हो जाती हैं जैसे एक एक साथ एक फ्री, इस तरह की एक यात्रा हमें जयपुर के संक्षिप्त भर्मण के रूप में मिली। घर जाने के लिए टिकट  बुक कराना था, इसलिए एयर टिकट के लिए मजगमारी करनी थी। बुक कराते समय डील  देखते हुए लगा कि बैंगलोर से दिल्ली से जाने  बजाय हम जयपुर से होते  हुए भी जा सकते हैं और जिस ट्रैन से हम दिल्ली से बैठते हैं उसमे जयपुर से ही बैठ जायेंगे इससे बार इधर उधर करने का झंझट भी नहीं रहेगा। मामला जम गया और करीब चार महीने पहले हमने १० मई की सुबह छह बजे वाली फ्लाइट में बैंगलोर से जयपुर का टिकट करवा दिया। ट्रैन में सीट आरक्षित करने से पहले मन था कि एकदिन रुक जायेंगे पर जब तक टिकट कराने का दिन आया तो बैंगलोर में भी सूर्य देव अपने चरम पर आ गए तो लगने लगा जब प्राकृतिक एयर कंडीशनर के नाम से विख्यात बैंगलोर में ही ये हालत हैं हैं तो राजस्थान, और वो भी मई के महीने में थोड़ा मुश्किल ही रहेगा,पर घुमक्क्डी इसीका नाम है। इसलिए उसी दिन का ट्रैन से रिजर्वेशन करवा लिया। अब हमारे पास सुबह आठ से दोपहर दो बजे तक करीब छह घंटे का समय था यहाँ के लिए। इतने में गूगल देव की सहायता से ये भी देख लिया कि कौन कौन सी जगह जा सकते हैं और कहाँ जाना संभव नहीं है। जाने के दो दिन पहले राजपुताना केब वाले से आधे दिन की एयर कंडीशन कार की बात कर ली और ऐसा ड्राइवर देने को बोला जो गाइड का काम भी कर सके।

Tuesday 26 April 2016

Crank Ridge,Almora

             क्रैंक रिज, जी हाँ सही सुना ना ना, सही पढ़ा आपने। आज आपको ले चलते हैं यहाँ की सैर पर। चल तो पड़े लेकिन ये तो पता होना जरुरी है कि ये जगह है कहाँ। इस मुश्किल को हल किये देते हैं ये बता के कि उत्तराखंड में ही है ये क्रैंक रिज। अब आप सोच रहे होंगे कहाँ हो सकती हैं ये जगह, उत्तराखंड जैसे राज्य जिसे देवभूमि कहा जाता है उसके किसी दर्शनीय स्थल के लिए ये नाम कुछ अजीब सा लग रहा है ना। अब सबसे पहले दिमाग में जो नाम आ रहा होगा वो नैनीताल का होगा। थोड़ा अंग्रेजो के समय से बसा हुआ शहर है और वहां इस तरफ के काफी नाम भी है जैसे स्टोन ले, कैन्टन लॉज। पर ये क्रैंक रिज नैनीताल में ना हो कर अल्मोड़ा में हैं। सुन के आश्चर्य हो रहा होगा उत्तराखंड की सांस्कृतिक राजधानी और मंदिरों के गढ़ के रूप में विख्यात अल्मोड़ा में कोई इस तरह के नाम वाली जगह भी हो सकती है। ये अल्मोड़ा की एक छुपी हुए डेस्टिनेशन है जिसे कम लोग ही जानते हैं और अगर जानते भी हो तो दूसरे रूप में जानते हैं। इस जगह को एक और नाम से भी जाना जाता है और वो नाम है हिप्पी हिल।

Sunday 24 April 2016

Kasar Devi,Almora

       अल्मोड़ा को मंदिरों के साथ-साथ उसकी संकरी सी मालरोड और उनमे फर्राटेदार गति से चलते वाहनों से भी जाना जाता है। कोई बाहर से आने वाला मुसाफिर इस बात का अनुमान भी नहीं लगा सकता कि इतने छोटे से स्टेशन और भीड़ भाग वाली सड़कों के शहर अल्मोड़ा में प्रकृति के कई खजाने भी छुपे हुए हैं। इस श्रृंखला में मैं आपको अल्मोड़ा के दर्शनीय स्थलों का भ्रमण करा रही हूँ। पिछली पोस्ट में आपने गोलू देवता के दर्शन करे  और अब इस पोस्ट में हम लोग अपना रुख करते हैं कसार देवी मंदिर की तरफ। ये जगह धार्मिक महत्व की होने के साथ साथ अल्मोड़ा निवासियों के लिए एक बहुत बड़े पिकनिक स्पॉट के रूप में भी विख्यात है। यहाँ पर आपको हर तरह के लोग दिख जायेंगे। कोई भगवान की आस्था में लीन होंगे तो कोई प्राकृतिक नजारों को देखने में। प्रेमी युगलों के लिए ये जगह किसी स्वर्ग से कम नहीं, यहाँ के शांत वातारण में बैठकर वो एक दूसरे के साथ समय व्यतीत कर सकते हैं और शहर से दूर होने के कारण उन्हें पहचाने जाने का खतरा भी नही रहता है। इसके अतिरिक्त  एक बहुत ही महत्वपूर्ण कारण है इस जगह की प्रसिद्धि का। अब रास्ते पर निकल ही पड़े हैं तो धीरे धीरे कारण भी पता लग ही जायेगा। 
कसार देवी 

Monday 18 April 2016

घंटियों और चिट्ठियों के लिए प्रसिद्ध मंदिर की झलकियाँ

             अल्मोड़ा में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो गोलू देवता  के दरबार चितई ना गया हो। गर्मियों की छुट्टी में दूर दराज से आने वाले लोग भी किसी तरह समय निकाल कर यहाँ अवश्य ही जाते हैं। ऐसे में अगर किसी लोकल बन्दे से पूछा जाये कि यहाँ देखने जैसा क्या है तो उसका जवाब चितई मंदिर ही होगा,बहुत मान्यता है इस मन्दिर की। यहाँ आस पास में चीड़ के घने जंगल भी मिल जाते हैं और मौसम अगर खुशनुमा हो तो हिमालय के दर्शन भी हो जाते हैं।
मंदिर के पास  दिखता हिमालय 

Tuesday 12 April 2016

Almora:An Introduction

            उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में रचा बसा अल्मोड़ा शहर उन गिनी चुनी जगहों में से एक है जो कि अंग्रेज शासकों के द्वारा नहीं बल्कि उनके आगमन के बहुत पहले से बसाया गया है। जितना पुराना इस जगह का इतिहास है, उतनी ही समृद्ध यहाँ की संस्कृति है। इस कारण इस शहर की प्रसिद्धि सांस्कृतिक नगरी के रूप में भी है। यहाँ की संस्कृति यहाँ के त्योहारों, उत्सवों और यहाँ के मंदिरों के स्थापत्य में खूब झलकती है। यहाँ पर स्थित मंदिरों की संख्या को देखते हुए अगर इसे मंदिरों का गढ़ नाम दिया जाये तो कुछ गलत ना होगा।
अल्मोड़ा की एक सुबह 
         मंदिरों के आधिपत्य के साथ साथ यहाँ प्राकृतिक दृश्यों की भी बहुतायत है। अल्मोड़ा आते समय जहाँ से कोसी नदी साथ निभाना प्रारम्भ करती है, वहां से बाहर देखते हुए अल्मोड़ा कब पहुंचे पता ही नहीं लगता। लंबे लंबे सर्पिलाकार मोड़ों को पार करते हुए पता ही नहीं लगता कि अगले पल आपके सामने क्या आने वाला है। थोडी देर पहले तक जहाँ आपका साथ चीड़ के घने पेड़ निभा रहे होते हैं,वहीँ पलक झपकते ही देवदार के जंगल सामने आ जाते हैं।  अल्मोड़ा में ऐसा कहा जाता है कि अंग्रेज चीड़ के पेड़ों को पहाड़ों की बर्बादी के लिए लगा गए। कुछ हद ये बात सही भी लगती है क्योंकि चीड़ के पेड़ जहाँ पर हो वहां पर दूर दूर तक कोई दूसरा पेड़ या घास नहीं उपजती है। ऐसा इस कारण होता है कि चीड़ जमीन का सारा पानी सोख लेता है और जमीन बंजर होने लगती है, वहीँ दूसरी और देवदार के जंगल बहुत हरे भरे रहते हैं । विभिन्न प्रकार के छोटे पेड़ देवदार की छाया तले पलते हैं।  खैर इस बात की मुझे बहुत पुख्ता जानकारी नहीं है। रास्ते में हरे भरे नज़ारे दिखते रहे तो अच्छा ही लगता अब चाहें चीड़ हो या देवदार। 
कोसी नदी का साथ 
पहुँच गए अल्मोड़ा 
           समुद्र तल से सौलह सौ बयालीस मीटर की ऊंचाई पर होने के कारण यहाँ का मौसम साल भर मनभावन बना रहता है,यानिकी यहाँ साल भर आया जा सकता है। यहाँ के आने के लिए गर्मियों में अप्रैल से जून तक का और अक्टूबर में दशहरा महोत्सव का समय उपयुक्त रहता है। स्नोफॉल के दिवानों के लिए दिसंबर और जनवरी भी बढ़िया रहते हैं किन्तु उस समय पर्याप्त गर्म कपड़ो की आवश्यकता रहती है। मुख्य शहर में अगर बर्फवारी ना भी हो तो ऊंचाई वाली जगहें जैसे कसार देवी या फिर बिनसर पर्यटकों को निराश नहीं करते हैं।
            अल्मोड़ा सड़क मार्ग के द्वारा सभी जगहों से भलीभांति जुड़ा हुआ है। यहाँ का निकटवर्ती रेलवे स्टेशन काठगोदाम और और एअरपोर्ट पंतनगर है। काठगोदाम स्टेशन में दिल्ली, लखनऊ ,बरेली सभी जगहों से ट्रेन आती रहती हैं। दिल्ली से आने वाली ट्रेन संपर्क क्रांति,शताब्दी एक्सप्रेस और रानीखेत एक्सप्रेस हैं । संपर्क क्रांति और शताब्दी में तो टिकट मिल जाता है पर रानीखेत एक्सप्रेस के लिए काफी पहले से तैनाती रखनी होती हैं । अगर ट्रेन विकल्प ना हो तो दिल्ली से अल्मोड़ा, हल्द्वानी के लिए लगातार बस चलती रहती हैं। हल्द्वानी /काठगोदाम पहुँचने के बाद अल्मोड़ा जाने के लिए सरकारी बस या शेयर टेक्सी कर सकते हैं जो कि करीब तीन से चार घंटे का समय लेती हैं। एक बार शेयर टेक्सी में बैठ गए तो भवाली के पास से जो ठंडी हवा के झोंके आते हैं वो सफर की थकान गायब कर देते हैं। इसके बाद रास्ते में पड़ता है कैंची धाम,वहां पर अगर गाडी रुके तो मंदिर जाने के साथ साथ मूंग के पकोड़े और ब्रेड  पकोड़े खाना ना भूले। यहाँ से तो अल्मोड़ा थोडा ही रह जाता है और पलक झपकते ही आप पहुँच जाते हो। पहुँचने से थोडा पहले आपका स्वागत करता है एक बोर्ड जिस पर अंकित रहता है सांस्कृतिक नागरी अल्मोड़ा आपका स्वागत करती है।
             पहुँच तो गए, अब बड़ी समस्या ये है कि क्या देखा जाये,चलिए ये भी हल कर देते हैं। अब आपको ले चलते हैं अल्मोड़ा के प्रमुख दर्शनीय स्थलों की जानकारी के लिए-
चितई गोलू देवता- अल्मोड़ा का जिक्र हो और यहाँ के न्याय के देवता का जिक्र ना हो ये तो असम्भव ही है। शहर से चौदह किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस मंदिर की प्रसिद्धि दूर दूर तक फैली हुयी है ।यहाँ लोग चिट्ठियों के रूप में अर्जी लगाते हैं और मनोकामना पूर्ण होने पर घंटियां लगवाते हैं। अगर मौसम साथ दे तो यहाँ से हिमालय के मनोहारी दृश्य देखने को मिलते हैं। यहाँ पर पास से वन विहार भी स्थित है।

कसार देवी- दूसरी शताब्दी में बना यह मंदिर कसार नाम के गांव में स्थित है। यहाँ से अल्मोड़ा शहर के विहंगम दृश्य दिखाई देने के कारण ये आस्था का प्रतीक होने के साथ साथ एक पिकनिक स्पॉट के रूप में भी जाना जाता है।  
कसार  देवी का पैदल रास्ता। 
डोली डाना मंदिर-  इस मंदिर तक ब्राइट एन्ड कार्नर से जाया जा सकता है। 
स्याही देवी-अल्मोड़ा की पश्चिमी दिशा में शीतलाखेत  गाँव की चोटी पर बसा ये  श्यामा देवी का ये मंदिर  अति पौराणिक है। घने जंगल में होने के कारण यहाँ से शाम होने से पहले वापस आना उचित रहता है। 
बानडी देवी-गहन वनों के बीच बना ये मंदिर लमगड़ा गांव को जाने के रस्ते में पड़ता है। यहाँ जाने के लिए भी पैदल चढ़ाई करनी पड़ती है। 
          ऐसा माना जाता है कि अल्मोड़ा शहर इस इस प्रकार से बसा की  इसके चारो कौने की चार पहाड़ियों पर चार देवियों का वास है। उत्तर दिशा में कसार देवी ,दक्षिण में बानडी देवी, पश्चिम में स्याही देवी और पूर्व दिशा में डोली डाना विराजती हैं। 
कटारमल सूर्य मंदिर-कोसी के पास में कटारमल नाम के गांव में प्रसिद्ध सूर्य मंदिर है, कहने वाले ऐसा कहते हैं कि यहाँ पर कोणार्क के सूर्य मंदिर की झलक दिखती है। 
कटारमल सूर्य मंदिर 
गणनाथ मंदिर -ताकुला नामक जगह पर स्थित ये शिव मंदिर एक गुफानुमा जगह पर है। यहाँ प्राकृतिक रूप से शिवलिंग पर पानी गिरता है।
गणनाथ मंदिर 
ब्राइट एन्ड कार्नर-  माल रोड पर स्थित  जगह इस जगह से सूर्यास्त के  दृश्य  दिखाई पड़ते हैं। यहाँ पर पास में ही कैंट कैफेटेरिया है जहाँ पर बैठकर हलके फुल्के नाश्ते की साथ मनोहारी दृश्यों का आनंद लिया जा सकता है। 
ब्राइट एन्ड 
कैफेटेरिया 
जागेश्वर मंदिर समूह-जागेश्वर मंदिर या यूँ कहा जाये एक सौ आठ छोटे बड़े मंदिरों का समूह जिसे द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है अल्मोड़ा से करीबन चालीस किलोमीटर की दूरी पर है।  यहाँ से एक और मंदिर झाकर सेन भी जाया सा सकता है। 
ऑन दी वे तो जागेश्वर 
बिनसर वाइल्ड लाइफ- अल्मोड़ा से तीस किलोमीटर की दूरी इस जगह से तो लगभग सभी लोग परिचित ही होंगे। गजब की हिमालय श्रृंखला दिखती है यहाँ से। 
बिनसर के जंगल 
खूंट गांव- गोविंद बल्लभ पंत जी की जन्मस्थली है ये सुन्दर का गांव। इस जगह की अल्मोड़ा से दूरी तीस किलोमीटर की है। इस जगह पर स्याही देवी जाते समय जाया जा सकता है।  
             अंग्रेजो द्वारा बसाया गया पर्वतीय शहर रानीखेत भी अल्मोड़ा जिले के अंतर्गत ही आता है। ये अल्मोड़ा से करीब चालीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और यहाँ भी सुबह जा कर शाम तक वापस आया जा सकता है। थोडा और भ्रमण की इच्छा हो तो अट्ठावन किलोमीटर दूर कौसानी या फिर बासठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित झीलों की नगरी नैनीताल का रुख किया जा सकता है। अरे हाँ अगर मन में इच्छा भारत नेपाल के बॉर्डर तक जाने की हो तो करीब एक सौ पचास किलोमीटर दूर पिथौरागढ़ भी जाया जा सकता है और रास्ते में प्रसिद्ध गुफा महादेव यानिकी पाताल भुवनेश्वर और गंगोलीहाट में हाट कालिका के दर्शन भी करे जा सकते हैं। ये तो था अल्मोड़ा की भव्यता का एक सूक्ष्म परिचय, अगली पोस्ट से चलते हैं यहाँ के दर्शनीय स्थलों की सैर पर ।
अल्मोड़ा की अन्य पोस्ट-
Almora:An Introduction
घंटियों और चिट्ठियों के लिए प्रसिद्ध मंदिर की झलकियाँ
Kasar Devi,Almora
Crank Ridge,Almora
Jageshwar Temple, Almora
Gananath,Almora

Thursday 17 March 2016

Solang Valley,Manali

            समय कितना गतिमान है इस बात का अनुभव गुलाबा में बहुत अच्छे से हुआ। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अभी अभी तो पहुंचे ही थे और इतनी जल्दी  वापस जाने का समय भी हो गया। मन ये कह रहा था  कि अभी तो इन नजारों को नजर भर के देखा तक नहीं, इतनी जल्दी कैसे वापस हो जाएँ। लेकिन वक्त के आगे आजतक बड़े बड़ों की ना चली और विद्वानो का कथन है कि दिल और दिमाग के मुकाबले में हमेशा दिमाग की सुननी चाहिए, इसलिए भारी मन के साथ इन दृश्यों को अपनी यादों में बसाकर हम सड़क की तरफ उतरने लगे। चढ़ने के मुकाबले उतरने में ज्यादा समय लग रहा था, शायद जाते समय पहुँचने की जल्दी रही हो। मजे की बात ये थी कि अभी भी जहाँ भी देखो हर तरफ कुछ नयापन सा लग रहा था। 
एक झलक गुलाबा से। 

Thursday 10 March 2016

Gulaba Snow Point,Manali

               वैसे तो मनाली शहर हिमनगरी ही है पर यहाँ का प्रसिद्ध रोहतांग पास साल भर हिमाच्छादित रहने कारण सैलानियों के आकर्षण का मुख्य केन्द्र रहता है। इस बर्फीली घाटी में पूरे साल बर्फ रहने के कारण सिर्फ गर्मियों के मौसम में मई माह के दूसरे हफ्ते से नवम्बर तक जाना ही संभव हो पाता है। बाकि के दिनों के लिए रोहतांग पास के विकल्प के रूप में गुलाबा घाटी को रखा जाता है। ऊंचाई कम होने के कारण इस जगह पर हमेशा जाया जा सकता है और साथ में  बर्फ का लुफ्त भी उठाया जा सकता है। मई के शुरुवाती दिनों में जाने के कारण से आशा के अनुरूप रोहतांग पास बंद मिल, इसलिए स्वतः गुलाबा हमारी डेस्टिनेशन में सम्मिलित हो गया था। अब रोहतांग तो जा ही नहीं पाये तो उसके बारे में क्या कह सकते हैं ,परन्तु गुलाबा  ने भी निराश नहीं किया। मुझे तो गुलाबा जा कर ऐसी अनुभूति हुयी कि अगर कहीं धरती पर स्वर्ग है तो यहीं है। वास्तव में बर्फ से ढके पहाड़ इतने नजदीक से देखने का अनुभव निराला ही होता है। 
बर्फ से ढकी ये वादियां  बार बार बुलाती हैं। 
           एक परिचय गुलाबा का- जम्मू  कश्मीर के राजा गुलाब सिंह के नाम पर इस जगह को गुलाबा कहा जाता है। जब रोहतांग पास बर्फवारी के कारण बंद होता है ,तो मनाली से बीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित गुलाबा पर्यटकों को यूँही वापस नहीं जाने देता, बल्कि ढेर सारी बेशकीमती यादों के साथ भेजता है, जो उनके रोहतांग नहीं जा पाने के अफ़सोस को काफी हद तक कम कर देती हैं। 

Friday 26 February 2016

Magnificent Manali

                       गजब का आकर्षण है हिमालय की गोद में बसे शहर मनाली में, सोचने मात्र से ही नीला आसमान, हिमआच्छादित पहाड़ों की चोटियों पर उमड़ घुमड़ कर आने वाले बादलों और इन्ही पर्वतों की तलहटी में लहराती बलखाती हुयी व्यास नदी के दृश्य आँखों के सामने आ जाते हैं। यहाँ कदम रखने से पहले मन में जो आतुरता थी वो पहुँचने के बाद  कम होने के बजाय बढ़कर अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी। इस सुन्दर से पर्वतीय शहर से प्रवेश करते  ही ये  आभास  हो गया था कि यहाँ के बारे  में जितना सुन रखा है, वास्तव में ये जगह उससे भी कई गुना बढ़कर है। होटल पहुँच कर  चेक इन  की औपचारिकता करने के साथ साथ बाद चाय नाश्ते का आर्डर भी साथ में ही दे दिया ,क्यूंकि अब तक पेट में चूहों ने हाहाकार मचा दिया था। होटल  स्टाफ ने हमें कमरे तक छोड़ा और हम सामान कमरे में डालकर सीधा बालकनी में चले गए, क्यूंकि चाय के इंतजार में कमरे में बैठने से ज्यादा अच्छा बालकनी में खड़े हो कर यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य से साक्षात्कार करना था। यकीन मानिये यहाँ पर कुदरत इस कदर मेहरबान है कि एक बार बालकनी में कदम रखा तो फिर जब तक चाय नहीं आई अंदर नहीं आ पाये। 
बर्फ से ढकी पहाड़ियां 

Thursday 25 February 2016

Amazing Landscape of Hills

               उत्तराखंड में पले बढे होने के कारण बरफ से ढके हुये पहाड़, आँखों के सामने चमचमाती हिमालय श्रृंखला, उनसे निकल कर कल कल बहती नदियों और मीठे पानी के झरनों का साथ बचपन से ही हमारे साथ बना रहा है।  ये प्राकृतिक सौंदर्य हमारे रोज मर्रा के जीवन में इस तरह से सम्मिलित था कि कभी ये विचार मन में आया ही नहीं कि जिंदगी इससे इतर भी हो सकती है। पहाड़ों की इस अनूठी विशेषता का अहसास तब हुआ जब यहाँ से बाहर निकलने के बाद  इन अप्रतिम नज़रों के दर्शन होंने बंद हो गए। अब याद आने लगे केन्ट एरिया में होने के कारण हरी भरी वादियों वाले रानीखेत के चक्कर जो ना जाने कितनी बार लगाये होंगे। कई बार नैनीताल जाने के बाद भी वहां की नैनी झील का आकर्षण आज भी कम होने की जगह और बढ़ता गया। पर दिन हमेशा एक से तो नहीं होते अब इनकी जगह जहाँ तक नजर डालो वहां कृतिम तरीक़ों से उगाई गयी घास दिखती है या फिर इनकी जगह करीने से लगे हुए नारियल के पेड़। इस पड़ाव पर आने के बाद अब जब घर जाने का अवसर मिलता है तो भीमताल के पास से जो प्राकृतिक दृश्य दिखाई देने शुरू होते हैं उनका महत्व  एवं आकर्षण अचानक से कुछ ज्यादा ही बढ़ सा गया ।
अल्मोड़ा से दिखती हिमालय श्रंखला  

सुबह के समय कोहरे से ढकी पहाड़ियां 
नैनी झील 
रानीखेत गोल्फ ग्राउंड 
               उत्तराखंड की इन मनोरम वादियों से तो हम परिचित ही थे पर देव भूमि में अपने पडोसी राज्य हिमाचल से सुखद साक्षात्कार के अवसर नहीं मिल पाये थे, पढ़ने के दिनों में दिल्ली प्रवास के समय  एक दो बार शिमला जाने का प्लान बनाया, पर वो भी सम्भव नहीं हो सका। हिमाचल के सुरम्य स्थलों में से एक मनाली के नाम से तो पर्यटन या घुमक्कडी में रूचि रखने वालों में से शायद ही कोई अनजान हो, तो इस जगह का आकर्षण हम भी कैसे छोड़ सकते थे। वैसे पुरानी उक्तियों के अनुसार मनाली का नाम मनु के नाम पर रखा गया, पर इस विषय में मेरी एक अलग सोच भी है पहाड़ी भाषा में  एक वाक्य 'मन-आली नी आल' है, जिसका तात्पर्य ये होता है मन आएगी या नहीं, इसलिये  मेरे अपने विचारों में जो मन आ जाये वो मनाली। अब सोचना ये था जब जगह का नाम ही इतना सुन्दर तो जगह कितनी निराली होगी। जितना इस बारे में सोचा उतना मनाली के प्रति आकर्षण बढ़ता गया, गूगल में बैठ बैठकर कई सारे फोटो देखे और इसके साथ साथ उन जगहों को अपनी आँखों से देखने की चाहत भी बढ़ती ही चली गयी। इस तरह से जुलाई,2011 के शुरुवाती दिनों में मनाली जाने का प्लान बनाया गया, पर कहते हैं जिस चीज के पीछे जितना भागो वो अपने पीछे उतना और भगाती है, ये ही हमारे साथ भी हुआ जिस दिन जाना था उसके पहले दिनों में मूसलाधार बारिश के कारण जाना मुश्किल ही हो गया, उसी दौरान लेह में बादल फटने वाली ह्रदय विदारक घटना भी हुयी। इस तरह से ये प्रयास असफल रहा, पर मनाली जाने की चाहत ने कभी पीछा नहीं छोड़ा, या कहा जाये कि वो और जोर पकड़ गयी । 
                 अब जब इच्छा मन में बस ही गयी थी तो एक बार फिर से 2013 जून लास्ट के दिनों का प्लान बनाया गया, इस समय अंतर ये रहा कि चंडीगढ़ से होते हुए जाने का विचार था और साथ में छोटा  छोटा बच्चा भी था। पर हमारा भाग्य एक बार फिर उत्तराखंड और हिमाचल पर प्राकृतिक आपदा आ गयी, हमारा विचार भी लगभग उन्ही दिनों में जाने का था , अब एक बार फिर से सारा मामला ठन्डे बस्ते में चला गया। पहली बार के असफल प्रयास ने जेब में ज्यादा फर्क नहीं डाला था, पर अबकि बार तगड़ी जेब कटी। इस बार तो सोच ही लिया था कि मनाली जाना हमारे बस का नहीं प्रतीत होता है। इसके बाद कहीं भी जाने का प्लान बनायेंगे पर मनाली नहीं जायेंगे। 
                इसके बाद कुछ समय तो हम शांति से बैठे रहे पर अगर एक बार किसी जगह जाने को मन मचल ही गया हो, तो फिर इतनी आसानी से पीछा कहाँ छोड़ता है। 2014 के अंतिम दिनों में मन ने एक बार फिर मनाली जाने के लिए उछालें मारना शुरू कर दिया और उसका साथ दिया एयरलाइन कंपनी द्वारा समय समय पर आने वाले रोचक ऑफर ने। यूँही एक दिन फिर से मनाली जाने के लिए मई,2015 में बंगलौर से चंडीगढ़ की फ्लाइट बुक करवा डाली। हालाकिं पिछले दो बार की असफलता के कारण इस बार भी यात्रा को ले कर जाने जाने तक मन में संदेह तो था ही, पर आशा और निराशा के बीच घर से निकलने का समय आ ही गया और हम निकल पड़े । बैंगलोर से चंडीगढ़ का सफर तो आप लोग पढ़ ही चुके हैं, चंडीगढ़ से आगे मनाली के लिए हिमाचल परिवहन के हिम गौरवी में पहले से टिकट आरक्षित करा रखे थे। चंडीगढ़ से नियत समय पर बस चल पड़ी, पर थोड़ी सी दूरी तय करते ही  ड्राईवर साहब ने भोजन करने के लिये विश्राम ले लिया।
                करीब आधे घण्टे बाद बस फिर चालू हुयी पर ये क्या एक घण्टा भी नहीं हुआ था कि बस से आवाज आनी शुरु हो गयी, काफी देर तक छानबीन करने के बाद पता लगा बस का एसी ख़राब है उसी वजह से आवाज आ रही है पर रह रह कर स्पार्किंग के कारण जो धुंआ आ रहा था उसे देखकर सभी यात्री थोडा घबरा ही रहे थे, क्योंकि एक तो बस देखने में भी थोडा खटारा किस्म की थी उस पर जगह जगह खड़ी हो जा रही थी। सबके मन में इस बात का संशय ही था कि ये मनाली तक पहुंचा भी पायेगी या नहीं। खैर बस कछुवे की चाल से रुकते रुकाते आगे बढ़ने लगी तो सभी यात्री भी सो गए, लेकिन सुबह छह बजे के समय पर मंडी से थोड़ा आगे  औट(Aut) नामक जगह पर फिर से खड़ी हो गयी। थोड़ी देर के बाद ये बता दिया गया कि ये बस आगे जाने लायक नहीं है और फिर क्या था सभी यात्री ड्राईवर के ऊपर झल्लाने लगे कि ये क्या है। उसने कहा कि किसी दुसरी बस में बैठा देगा लेकिन थोड़ी देर इंतजार करना पड़ेगा। एक घंटे से ज्यादा समय निकल गया पर किसी भी बस वाले ने बैठाने से मना कर दिया क्योंकि वैसे ही सभी बस भरी हुयी आ रही थी और चालीस से ज्यादा यात्री सड़क पर खड़े थे। अब कोई ले भी जाये तो किस किस को, सभी जल्दी में थे।  आधे घंटे से अधिक इंतजार करने पर भी कोई बस नहीं आई तो हमने ये सोच लिया कि अब जो भी टेक्सी आएगी खाली उस में ही बैठ जायेंगे क्योंकि इस तरह कब तक सड़क में खड़े रह सकते हैं । गरमी का मौसम होने के बाद भी सुबह के समय तापमान 2* सेल्सियस था।
              इस समय ठण्ड जरूर लग रही थी पर  पूरी रात का सफ़र करने के बाद एक घंटे से सड़क पर खड़े होने के बाद भी थोड़ी देर की भी बुरा नहीं लगा शायद इसके पीछे यहाँ पर से दिखाई देने वाले प्राकृतिक दृश्यों का योगदान रहा होगा। लोग बस देखना छोड़ के फ़ोटो लेने में व्यस्त हो गए थे। इतनी देर में एक टेक्सी वाला जो कुल्लू का था उससे बात करी तो वो कुछ वाजिब रेट में मनाली तक छोड़ने को तैयार हो गया। यहाँ से लगभग पुरे रास्ते व्यास नदी ने हमारा साथ निभाया, इसके तीव्र उफान को देखकर कभी अच्छा लग रहा था तो कभी डर भी लग रहा था। व्यास नदी का तीव्र वेग देखकर रह रह कर उत्तराखंड की पिंडर नदी की याद आ रही थी, और टेक्सी वाला व्यास नदी के उफान के किस्से सुना कर डरा रहा था। ओट के बाद पहाड़ियों पर दिखने वाले हरे रंग में एक अलग आकर्षण सा लग रहा था, शायद ये हरा रंग थोडा ग्रे कलर लिया हुआ था। वैसे बस खराब होने का एक फायदा भी हुआ, ठण्ड लगने के कारण हम लोग उठ गए थे, अगर बस में होते तो सोये ही रह जाते और रास्ते के इन नयनाभिराम दृश्यों के दर्शन नहीं कर पाते। थोडा आगे बढे ही थे कि औट से मनाली को ले जाने वाली 2.7 किलोमीटर लंबी टनल आ गयी, ये वो ही सुरंग है जिससे 3 इडियट मूवी "यार हमारा था वो" गाने के बाद फ़्लैश बेक में चली गयी थी। उत्तराखंड और हिमाचल की पहाड़ियों में शायद इस रंग का ही अन्तर होगा। दो घंटे में हमने मनाली में अपने पहले से बुक करे हुए होटल में चेक इन कर लिया। होटल में चाय नाश्ते के बाद थोड़ी देर विश्राम करने का विचार था, पर बालकनी से दिखने वाली पहाड़ियों ने मन प्रफुल्लित का दिया। इस यात्रा के कुछ शुरुवाती दृश्य -


हवेली 
खटारा  बस ,और हाँ ये बाहर से फिर भी अच्छी लग रही है,अंदर इसकी हालात भयंकर ही थी।
औट टनल
औट से मनाली का रास्ता 
लहराती बलखाती व्यास नदी 
व्यू फ्रॉम होटल 
व्यू फ्रॉम होटल 
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