Friday 26 February 2016

Magnificent Manali

                       गजब का आकर्षण है हिमालय की गोद में बसे शहर मनाली में, सोचने मात्र से ही नीला आसमान, हिमआच्छादित पहाड़ों की चोटियों पर उमड़ घुमड़ कर आने वाले बादलों और इन्ही पर्वतों की तलहटी में लहराती बलखाती हुयी व्यास नदी के दृश्य आँखों के सामने आ जाते हैं। यहाँ कदम रखने से पहले मन में जो आतुरता थी वो पहुँचने के बाद  कम होने के बजाय बढ़कर अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी। इस सुन्दर से पर्वतीय शहर से प्रवेश करते  ही ये  आभास  हो गया था कि यहाँ के बारे  में जितना सुन रखा है, वास्तव में ये जगह उससे भी कई गुना बढ़कर है। होटल पहुँच कर  चेक इन  की औपचारिकता करने के साथ साथ बाद चाय नाश्ते का आर्डर भी साथ में ही दे दिया ,क्यूंकि अब तक पेट में चूहों ने हाहाकार मचा दिया था। होटल  स्टाफ ने हमें कमरे तक छोड़ा और हम सामान कमरे में डालकर सीधा बालकनी में चले गए, क्यूंकि चाय के इंतजार में कमरे में बैठने से ज्यादा अच्छा बालकनी में खड़े हो कर यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य से साक्षात्कार करना था। यकीन मानिये यहाँ पर कुदरत इस कदर मेहरबान है कि एक बार बालकनी में कदम रखा तो फिर जब तक चाय नहीं आई अंदर नहीं आ पाये। 
बर्फ से ढकी पहाड़ियां 

Thursday 25 February 2016

Amazing Landscape of Hills

               उत्तराखंड में पले बढे होने के कारण बरफ से ढके हुये पहाड़, आँखों के सामने चमचमाती हिमालय श्रृंखला, उनसे निकल कर कल कल बहती नदियों और मीठे पानी के झरनों का साथ बचपन से ही हमारे साथ बना रहा है।  ये प्राकृतिक सौंदर्य हमारे रोज मर्रा के जीवन में इस तरह से सम्मिलित था कि कभी ये विचार मन में आया ही नहीं कि जिंदगी इससे इतर भी हो सकती है। पहाड़ों की इस अनूठी विशेषता का अहसास तब हुआ जब यहाँ से बाहर निकलने के बाद  इन अप्रतिम नज़रों के दर्शन होंने बंद हो गए। अब याद आने लगे केन्ट एरिया में होने के कारण हरी भरी वादियों वाले रानीखेत के चक्कर जो ना जाने कितनी बार लगाये होंगे। कई बार नैनीताल जाने के बाद भी वहां की नैनी झील का आकर्षण आज भी कम होने की जगह और बढ़ता गया। पर दिन हमेशा एक से तो नहीं होते अब इनकी जगह जहाँ तक नजर डालो वहां कृतिम तरीक़ों से उगाई गयी घास दिखती है या फिर इनकी जगह करीने से लगे हुए नारियल के पेड़। इस पड़ाव पर आने के बाद अब जब घर जाने का अवसर मिलता है तो भीमताल के पास से जो प्राकृतिक दृश्य दिखाई देने शुरू होते हैं उनका महत्व  एवं आकर्षण अचानक से कुछ ज्यादा ही बढ़ सा गया ।
अल्मोड़ा से दिखती हिमालय श्रंखला  

सुबह के समय कोहरे से ढकी पहाड़ियां 
नैनी झील 
रानीखेत गोल्फ ग्राउंड 
               उत्तराखंड की इन मनोरम वादियों से तो हम परिचित ही थे पर देव भूमि में अपने पडोसी राज्य हिमाचल से सुखद साक्षात्कार के अवसर नहीं मिल पाये थे, पढ़ने के दिनों में दिल्ली प्रवास के समय  एक दो बार शिमला जाने का प्लान बनाया, पर वो भी सम्भव नहीं हो सका। हिमाचल के सुरम्य स्थलों में से एक मनाली के नाम से तो पर्यटन या घुमक्कडी में रूचि रखने वालों में से शायद ही कोई अनजान हो, तो इस जगह का आकर्षण हम भी कैसे छोड़ सकते थे। वैसे पुरानी उक्तियों के अनुसार मनाली का नाम मनु के नाम पर रखा गया, पर इस विषय में मेरी एक अलग सोच भी है पहाड़ी भाषा में  एक वाक्य 'मन-आली नी आल' है, जिसका तात्पर्य ये होता है मन आएगी या नहीं, इसलिये  मेरे अपने विचारों में जो मन आ जाये वो मनाली। अब सोचना ये था जब जगह का नाम ही इतना सुन्दर तो जगह कितनी निराली होगी। जितना इस बारे में सोचा उतना मनाली के प्रति आकर्षण बढ़ता गया, गूगल में बैठ बैठकर कई सारे फोटो देखे और इसके साथ साथ उन जगहों को अपनी आँखों से देखने की चाहत भी बढ़ती ही चली गयी। इस तरह से जुलाई,2011 के शुरुवाती दिनों में मनाली जाने का प्लान बनाया गया, पर कहते हैं जिस चीज के पीछे जितना भागो वो अपने पीछे उतना और भगाती है, ये ही हमारे साथ भी हुआ जिस दिन जाना था उसके पहले दिनों में मूसलाधार बारिश के कारण जाना मुश्किल ही हो गया, उसी दौरान लेह में बादल फटने वाली ह्रदय विदारक घटना भी हुयी। इस तरह से ये प्रयास असफल रहा, पर मनाली जाने की चाहत ने कभी पीछा नहीं छोड़ा, या कहा जाये कि वो और जोर पकड़ गयी । 
                 अब जब इच्छा मन में बस ही गयी थी तो एक बार फिर से 2013 जून लास्ट के दिनों का प्लान बनाया गया, इस समय अंतर ये रहा कि चंडीगढ़ से होते हुए जाने का विचार था और साथ में छोटा  छोटा बच्चा भी था। पर हमारा भाग्य एक बार फिर उत्तराखंड और हिमाचल पर प्राकृतिक आपदा आ गयी, हमारा विचार भी लगभग उन्ही दिनों में जाने का था , अब एक बार फिर से सारा मामला ठन्डे बस्ते में चला गया। पहली बार के असफल प्रयास ने जेब में ज्यादा फर्क नहीं डाला था, पर अबकि बार तगड़ी जेब कटी। इस बार तो सोच ही लिया था कि मनाली जाना हमारे बस का नहीं प्रतीत होता है। इसके बाद कहीं भी जाने का प्लान बनायेंगे पर मनाली नहीं जायेंगे। 
                इसके बाद कुछ समय तो हम शांति से बैठे रहे पर अगर एक बार किसी जगह जाने को मन मचल ही गया हो, तो फिर इतनी आसानी से पीछा कहाँ छोड़ता है। 2014 के अंतिम दिनों में मन ने एक बार फिर मनाली जाने के लिए उछालें मारना शुरू कर दिया और उसका साथ दिया एयरलाइन कंपनी द्वारा समय समय पर आने वाले रोचक ऑफर ने। यूँही एक दिन फिर से मनाली जाने के लिए मई,2015 में बंगलौर से चंडीगढ़ की फ्लाइट बुक करवा डाली। हालाकिं पिछले दो बार की असफलता के कारण इस बार भी यात्रा को ले कर जाने जाने तक मन में संदेह तो था ही, पर आशा और निराशा के बीच घर से निकलने का समय आ ही गया और हम निकल पड़े । बैंगलोर से चंडीगढ़ का सफर तो आप लोग पढ़ ही चुके हैं, चंडीगढ़ से आगे मनाली के लिए हिमाचल परिवहन के हिम गौरवी में पहले से टिकट आरक्षित करा रखे थे। चंडीगढ़ से नियत समय पर बस चल पड़ी, पर थोड़ी सी दूरी तय करते ही  ड्राईवर साहब ने भोजन करने के लिये विश्राम ले लिया।
                करीब आधे घण्टे बाद बस फिर चालू हुयी पर ये क्या एक घण्टा भी नहीं हुआ था कि बस से आवाज आनी शुरु हो गयी, काफी देर तक छानबीन करने के बाद पता लगा बस का एसी ख़राब है उसी वजह से आवाज आ रही है पर रह रह कर स्पार्किंग के कारण जो धुंआ आ रहा था उसे देखकर सभी यात्री थोडा घबरा ही रहे थे, क्योंकि एक तो बस देखने में भी थोडा खटारा किस्म की थी उस पर जगह जगह खड़ी हो जा रही थी। सबके मन में इस बात का संशय ही था कि ये मनाली तक पहुंचा भी पायेगी या नहीं। खैर बस कछुवे की चाल से रुकते रुकाते आगे बढ़ने लगी तो सभी यात्री भी सो गए, लेकिन सुबह छह बजे के समय पर मंडी से थोड़ा आगे  औट(Aut) नामक जगह पर फिर से खड़ी हो गयी। थोड़ी देर के बाद ये बता दिया गया कि ये बस आगे जाने लायक नहीं है और फिर क्या था सभी यात्री ड्राईवर के ऊपर झल्लाने लगे कि ये क्या है। उसने कहा कि किसी दुसरी बस में बैठा देगा लेकिन थोड़ी देर इंतजार करना पड़ेगा। एक घंटे से ज्यादा समय निकल गया पर किसी भी बस वाले ने बैठाने से मना कर दिया क्योंकि वैसे ही सभी बस भरी हुयी आ रही थी और चालीस से ज्यादा यात्री सड़क पर खड़े थे। अब कोई ले भी जाये तो किस किस को, सभी जल्दी में थे।  आधे घंटे से अधिक इंतजार करने पर भी कोई बस नहीं आई तो हमने ये सोच लिया कि अब जो भी टेक्सी आएगी खाली उस में ही बैठ जायेंगे क्योंकि इस तरह कब तक सड़क में खड़े रह सकते हैं । गरमी का मौसम होने के बाद भी सुबह के समय तापमान 2* सेल्सियस था।
              इस समय ठण्ड जरूर लग रही थी पर  पूरी रात का सफ़र करने के बाद एक घंटे से सड़क पर खड़े होने के बाद भी थोड़ी देर की भी बुरा नहीं लगा शायद इसके पीछे यहाँ पर से दिखाई देने वाले प्राकृतिक दृश्यों का योगदान रहा होगा। लोग बस देखना छोड़ के फ़ोटो लेने में व्यस्त हो गए थे। इतनी देर में एक टेक्सी वाला जो कुल्लू का था उससे बात करी तो वो कुछ वाजिब रेट में मनाली तक छोड़ने को तैयार हो गया। यहाँ से लगभग पुरे रास्ते व्यास नदी ने हमारा साथ निभाया, इसके तीव्र उफान को देखकर कभी अच्छा लग रहा था तो कभी डर भी लग रहा था। व्यास नदी का तीव्र वेग देखकर रह रह कर उत्तराखंड की पिंडर नदी की याद आ रही थी, और टेक्सी वाला व्यास नदी के उफान के किस्से सुना कर डरा रहा था। ओट के बाद पहाड़ियों पर दिखने वाले हरे रंग में एक अलग आकर्षण सा लग रहा था, शायद ये हरा रंग थोडा ग्रे कलर लिया हुआ था। वैसे बस खराब होने का एक फायदा भी हुआ, ठण्ड लगने के कारण हम लोग उठ गए थे, अगर बस में होते तो सोये ही रह जाते और रास्ते के इन नयनाभिराम दृश्यों के दर्शन नहीं कर पाते। थोडा आगे बढे ही थे कि औट से मनाली को ले जाने वाली 2.7 किलोमीटर लंबी टनल आ गयी, ये वो ही सुरंग है जिससे 3 इडियट मूवी "यार हमारा था वो" गाने के बाद फ़्लैश बेक में चली गयी थी। उत्तराखंड और हिमाचल की पहाड़ियों में शायद इस रंग का ही अन्तर होगा। दो घंटे में हमने मनाली में अपने पहले से बुक करे हुए होटल में चेक इन कर लिया। होटल में चाय नाश्ते के बाद थोड़ी देर विश्राम करने का विचार था, पर बालकनी से दिखने वाली पहाड़ियों ने मन प्रफुल्लित का दिया। इस यात्रा के कुछ शुरुवाती दृश्य -


हवेली 
खटारा  बस ,और हाँ ये बाहर से फिर भी अच्छी लग रही है,अंदर इसकी हालात भयंकर ही थी।
औट टनल
औट से मनाली का रास्ता 
लहराती बलखाती व्यास नदी 
व्यू फ्रॉम होटल 
व्यू फ्रॉम होटल 
इस श्रंखला की अन्य पोस्ट -

Tuesday 23 February 2016

Dream of Nek Chand -Rock Garden

                          नेक चंद द्वारा निर्मित रॉक गार्डन चंडीगढ़ के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से एक माना जाता है,ये गैर क़ानूनी निर्माण किस प्रकार पर्यटक स्थल के रूप में अपनी जगह बना पाया इसके पीछे एक रोचक कहानी है। बात उस समय की है जब कार्बूजियर के दिशा निर्देशों के हिसाब से जवाहर लाल नेहरू के सपनो के शहर चंडीगढ़ का निर्माण हो रहा था,पर आश्चर्जनक बात ये थी कि रॉक गार्डन उस योजना का हिस्सा नहीं था। अब सवाल ये उठता है अगर चंडीगढ़ के निर्माता ने इस गार्डन को नहीं बनाया तो आखिर किसने बनाया इस किले को, इस गार्डन को या फिर कहें कबाड़ से बने इस महल को।समझ नहीं आता क्या कहूँ इस जगह के बारे में जिसका हर कौन अपनी जीवंतता और अपने निर्माणकर्ता की कारीगरी का मूक गवाह है। क्या नहीं है यहाँ झरने,पुलिया,पहाड़ और अन्य कलाकृतियां  और कैसे हुआ होगा इनका निर्माण -
रॉक  गार्डन की कंदराएँ। 
              ये बात सौलह आने खरी है कि जब -जब किसी जगह का विकास होता है तो उसके पुराने समय की सम्पदाओं को विलुप्त होना ही पड़ता है।ठीक यही चंडीगढ़ के साथ भी हुआ था,जहाँ एक तरफ तो एक नये आधुनिक शहर का जन्म हो रहा था,वहीँ इसके विपरीत कई गावों को अकारण खाली कराया गया,कई भवन और कई पुरानी इमारतों को तोडा  गया। इस तरह से  पुराने भवनों और इमारतों का बहुत सारा कचरा भी जमा होने लगा। फिर समस्या ये आने लगी कि अचानक से इतना कचरा कहाँ डाला जाये। अब ये कचरा को कैपीटोल काम्प्लेक्स में स्थित स्टोर में जमा किया जाने लगा। PWD  विभाग में  कार्यरत  नेक चन्द्र जी के कन्धों पर इस स्टोर की देख रेख का दारोमदार था।जैसे-जैसे कचरे का साम्राज्य बढ़ता गया ये स्टोर की देखभाल करने वाला अपनी कल्पना के लोक में खोने लगा। दिन भर कभी वो टूटी टाइल्स को देखते तो कभी वाशबेसिन के टुकड़ों को तो और कभी अन्य अवशेषों को।इस बात का अन्दाजा किसी को भी नहीं था कि वो किन विचारों में मशगूल रहते थे। धीरे धीरे जब वो अपने कल्पनालोक में बहुत आगे बढ़ गए तो वो दिन में स्टोर की देखभाल करने लगे और रात के अंधकार में  गायब रहने लगे। धीरे धीरे दिन ,महीने और साल दर साल गुजरने लगे और नेक चन्द्र की  कल्पना की दुनिया  इस धरती में अवतरित होने लगी।  दस साल के लम्बे अंतराल तक  जब वो इस प्रकार रातों को गायब रहने लगे  तो  लोगों को शक हुआ  कि ये कहाँ रहते हैं और क्या करते हैं । तब एक   सरकारी अफसर ने आख़िरकार खोजबीन कर के पता लगा ही लिया नेक चंद के इस अदभुत कारनामे का और उसने अवैध निर्माण की शिकायत लगा डाली। पर चंडीगढ़ की जनता ने इस महान व्यक्ति के कार्य को ना केवल सराहा और इसे चंडीगढ़ के प्रमुख दर्शनीय स्थलों की सूची में भी ला दिया। इस तरह से रॉक गार्डन दुनिया की  नजरों के सामने आया। चोरी छुपे तो यहाँ जीवंत सी लगती काल्पनिक मूर्तियां बनाई गयी थी उसके बाद तो ये निर्माण बढ़ता ही चला गया। गर्मियों के दिनों में सुबह सात बजे से शाम के साथ बजे तक और सर्दियों में शाम के छह  बजे तक ये गार्डन प्रयटकों के लिए हफ्ते के सातों दिन पर्यटकों के लिए खुला रहता है बीस रुपया मात्र की एंट्री फीस के साथ।
                  हम म्यूजियम काम्प्लेक्स से निकल कर एक बार फिर अपनी डबल डेकर में सवार हो गए और इसने हमें करीब आधे घंटे में रॉक गार्डन छोड़ दिया। सरदार जी का कहना था कि डेढ़ घंटे में आ जाओ तो वो रुकेंगे हमारे लिए, इसलिए  रॉक गार्डन को इत्मीनान से देखने का सोच कर हमने सरदार जी को बाय बाय बोल दिया। बाहर निकले तो सामने से तीन  पत्थरों का एक ढेर दिखाई पड़ा,पास जा के देखा इन पर तो गार्डन का नाम अंकित है। इसे देखने के बाद टिकटघर पर लगी विशालकाय पंक्ति में हम भी शामिल हो गए। आगे जा के एक बहुत ही कलात्मक सा गेट दिखा तो हम उसे रॉक गार्डन का गेट समझने की भूल कर बैठे,अंदर जा के ज्ञात हुआ कि ये तो कैफ़ेटेरिया था। फिर अपनी भूल सुधार कर रॉक गार्डन के मुख्य गेट पर गए।क्या करें बनाया ही ऐसा गया है तो कोई भी भूल कर बैठेगा। अंदर गए तो कई संकरे रास्तों,मिट्टी के घड़ों से,पुरानी चुडियों, पुराने टाइल्स आदि से बनई विभिन्न प्रकार की कलाकृतियों ने हमारा दिलखोल कर स्वागत किया। कई बार यहाँ घूमते हुए ये लग रहा था शायद हम किसी किले में घूम रहें पर दूसरे ही पल किसी और वस्तु को देखकर ये भ्रम टूट जा रहा था।कल कल बहते पानी के झरने कुछ अलग ही अहसास दिला रहे थे। कुल मिलाकर कबाड़ के ढेर से बने नेक चन्द्र के सपनो के इस गार्डन में आधुनिकता के साथ पुरानेपन दोनों का ही समवेश लग रहा था। घूमते घूमते काफी तेज गर्मी लग गयी तो एक गुफा के आकर की जगह में कुछ देर सुस्त लिए। उसके बाद थोड़ा और आकृतियों को देखने के बाद हम यहाँ से बहार निकालकर पुनः उस कैफ़ेटेरिया में चले गए। गजब के आलू के पराठे मिले थे वहां पर वो भी ठीकठाक रेट पर। खाने पीने के बाद अब वापसी का सोचना था तो सरदार जी के बताये मार्ग का अनुसरण कर के हम बस द्वारा सेक्टर सत्रह के बस अड्डे पहुंचे और क्लॉक रूम जा कर अपना सामान निकलवाया। अब इधर से अगली मंजिल थी एयरपोर्ट की तो एक बस और पकडी जिसने एयरपोर्ट के पास में उत्तर दिया। यहाँ से दस मिनट का पैदल रास्ता तय कर के एयरपोर्ट और उसके बाद वापस बैंगलोर। फिर मिलेंगे जल्द ही किसी नयी जगह पर,तब तक आप रॉक गार्डन के दर्शन करिये-
प्रवेश द्वार के समीप के पत्थर जिन पर रॉक गार्डन का नाम लिखा है। 
इतिहास एक नजर में 
एक छोटी सी नहर के ऊपर पुलिया। 
झरना 
ये संकरे से रास्ते 
तुरंत बाद चौड़ा रास्ता आ गया। 

कुछ दुमंजिले से भवनों की आकृति। 
एक झरोखा सा। 
ये कल कल बहता पानी जाने कितने लोगों ने यहाँ फोटो खिंचवायी होंगी। 

नेक चंद की सेना। 

सेना का अन्य रूप 
सेना का अन्य रूप 
सेना का अन्य रूप 







Friday 19 February 2016

CITCO Chandigarh,चंडीगढ़ द्वारा संचालित बस से सिटी टूर

यात्रा दिनांक-६ मई २०१५  
            पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार आज का दिन चंडीगढ़ भ्रमण के लिए निर्धारित था ।यहाँ घूमने के लिए हमारे पास प्रातः नौ बजे से शाम के चार बजे तक का समय था ।गूगल में काफी रिसर्च करने के बाद हमने यहाँ घूमने के लिए चंडीगढ़ सरकार द्वारा चलने वाले आधे दिन के हॉप ओन हॉप ऑफ ट्रिप को लेने का विचार था। इसका प्रति व्यक्ति किराया पचास रुपया था और ये लगभग शहर के सभी दर्शनीय स्थलों की सैर करा रही थी।बैंगलोर से निकलने से सोचा था कि एक बार फ़ोन में बात करके पूछ लेंगे और टिकट आरक्षित होता हो तो करा लेगें ,परन्तु वहां से जवाब आया "अजी दस मिनट पहले आ जाना उसी समय टिकट मिल जायेगा।" इसलिए  हम सेक्टर सत्रह पर स्थित आइसबीटी  में सामान समेत पहुँच गए और यहाँ पर स्थित क्लॉक रूम में अपना सामान रखा दिया। इसके बाद थोड़ी पूछताछ करने पर ज्ञात हुआ ये टूर तो यहाँ से कंडक्ट ही नहीं होता ,होटल शिवालिक से होता है।अब मरता क्या ना करता वाली हालत थी तो जाना तो था ही वहां।इधर पहुचे तो देखा ड्राईवर साहब गैरहाजिर हैं और हम गाड़ी के पास में ही पेड़ की छावं देखकर प्रतीक्षा में बैठ गए।लेकिन बहुत देर तक किसी यात्री को नही आता देखकर मन में कुछ अचरज भी होने लगा था। कुछ देर बाद एक सरदार जी आये तो वो बोलने लगे अब क्या दो लोगों के लिए गाड़ी चलाऊं, गाड़ी की सफाई भी नहीं हुई है।फिर हमलोग बोले अब इतनी दूर से आये हैं कैसे घूमेंगे बोलने लगा टेक्सी से चले जाओ ।फिर हमने बोला कि जब टूर कंडक्ट ही नहीं करना था तो इंटरनेट में जानकारी क्यों दे रखी है,इस प्रकार येन केन प्रकारेण वो चलने को तैयार हो गए।हमारे आज के सफर की मंजिलों में  रोज गार्डन,और कुछ म्यूजियम और रॉक गार्डन शामिल थे ।इस यात्रा का अनुभव कुछ अलग ही था,इतनी बड़ी डबल डेकर बस और यात्री सिर्फ हम दो
               अपनी मुश्किलें गिनाते गिनाते सरदार जी ने यहाँ से डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर स्थित रोज गार्डन या कहिये तीस एकड़ भूमि में फैले हुए जाकिर हुसैन रोज गार्डन पहुंचा दिया।यहाँ पर अलग अलग सौलह सौ प्रजातियों के गुलाब पाये जाते हैं।हालाँकि पहाड़ों में पीला बढे होने के कारण मुझे भ्रम था कि मई के महीने में गुलाब तो खिला रहता होगा ,पर यहाँ एक भी गुलाब नहीं दिखाई दिया।प्रवेश द्वार में पहुँचते ही एक बोगनबेलिया से लदा हुआ पेड़ दिखाई दिया,जिसने  कर लिया। यहाँ के उम्दा किस्म के रख रखाव और साफ़ सफाई के बारे में तो मेरे पास कहने को शब्द ही नहीं हैं। यहाँ पर करीने से लगे पेड़ों की छावं ने  राहगीरों को अपने आँचल में आशियाना दे रखा था। खैर हम यहाँ ज्यादा देर नहीं रुके क्यूंकि गुलाबों की अदभुत छटा जिसे देखने की कल्पना कर के हम आये थे वो यहाँ कि गरम आबोहवा के कारण पहले ही मुरझा चुकी थी,और गर्मी अलग थपेड़े लगा रही थी। इसके अतिरिक्त हमें इस बात का भय भी था कि कहीं गाड़ी हमें बीच सफर में छोड कर चले न जाये। यहाँ से फटाफट बाहर निकले तो अपनी डबल देकर को खड़ा देख कर जान  में जान आई। इसके बाद अगली मंजिल थी सेक्टर  स्थित गवर्नमेंट म्यूज़ियम और  गैलरी।
                       इस वर्गाकार ईमारत की रूपरेखा भी कार्बूजियर द्वारा ही तैयार की गयी थी।१६५*१६५ किलोमीटर के आकर के इस भवन के निम्न भाग है-
१-गवर्मेन्ट म्यूज़ियम एवं आर्ट गैलेरी-यहाँ पर गांधार कला एवं पौराणिक भारत की विभिन्न प्रकार के मूर्ति शिल्प,हस्त कला एवं कलाकृतियों के नमूने रखे हुए हैं।यहाँ पर इस संग्रह की संख्या करीब दस हजार से भी अधिक है। 
२-नेचुरल हिस्ट्री म्यूज़ियम-डायनासोर की कुछ नयी प्रजातियां भारत में भी पायी गयी थी। यहाँ पर डायनासोर की विभिन्न प्रजातियों,उनके प्रजनन के बारे में,अंडे और फ़ॉसिल्स के बारे में मॉडेलनुमा जानकारी प्रदान की गयी है। यहां पर मुख्य रूप से ये दर्शाया गया है कि भारत में कितने प्रकार के डायनासोर पाये जाते थे और किस प्रकार का भोजन ग्रहण करते थे। इस तरह का एक भव्य म्यूज़ियम में वाशिंगटन में देख चुकी थी,इस वजह से उतना आंनद नहीं आया लेकिन ये किसी भी द्रष्टिकोण से कम भी नहीं था।
३-नेशनल गैलरी ऑफ़ पोर्ट्रेट- यहाँ पर भारत की कई महान विभूतियों के चित्रों का संकलन है। 
                    ये म्यूज़ियम काम्प्लेक्स सुबह दस बजे से शाम के साढ़े चार बजे तक सोमवार के अतिरिक्त अन्य दिनों पर खुला रहता है और प्रति व्यक्ति दस रूपये का टिकट पड़ता है।इसके आलावा बारह वर्ष तक के बच्चों और वृद्ध नागरिकों के लिए कोई शुल्क नहीं पड़ता। यहाँ के दर्शन के बाद हमें रॉक गार्डन के लिए निकलना था। म्यूज़ियम काम्प्लेक्स एवं रोज गार्डन के दृश्य -
डबल डेकर बस 
रोज गार्डन 


स्वच्छता 


बोगनबेलिया 
रास्ते में एक प्रतीकात्मक एफिल टावर के दर्शन भी हो गए। 

म्यूज़ियम काम्प्लेक्स 
डायनासोर  
डायनासोर  के अंडे 
मानव जाति के विकास का क्रम               
मॉडल्स 
नेशनल गैलरी ऑफ़ आर्ट 
नेशनल गैलरी ऑफ़ आर्ट 
नेशनल गैलरी ऑफ़ आर्ट 





Tuesday 9 February 2016

Chandigarh:The First Planned City of India and its Attractions,चंडीगढ़ का भारत का प्रथम सुनियोजित शहर और इसकी शान सुखना लेक

               दुर्गा माँ के स्वरूप चंडी देवी के नाम पर बसा चंडीगढ़,उत्तर भारत के मुख्य शहरों में आता है। जहाँ एक तरफ तो ये केंद्रशासित प्रदेश होने के साथ साथ पंजाब एवं हरियाणा की संयुक्त राजधानी के रूप में जाना जाता है, वहीं दूसरी तरफ इसे भारत के सबसे पहले  सुनिजोयित शहर के रूप में भी भरपूर प्रसिद्धि मिली है। शिवालिक श्रृंखलाओं की तलहटी में बसे इस शहर में आधुनिकता के साथ साथ पौराणिकता का संगम भी देखने को  मिलता है। इसके पहाड़ों के समीप होने के कारण कई बार मन करता है कि यहीं कही रोजी रोटी का ठिकाना मिल जाये तो भागमभाग की जिंदगी छोड़ के आ जाओ । जब मन करे ठंडी हवा खाने को पहाड़ी वादियों में चल दो और पंजाबी खाने के स्वाद से तो सभी परिचित  हैं। भारत पाक विभाजन के बाद पंजाब को एक नयी राजधानी की जरूरत आन पड़ी, तब फ्रांसीसी आर्किटेक्ट ली कार्बूजियर ने सन उन्नीस सौ बावन में एक कुशल योजना के साथ  सेक्टरों के हिसाब से चंडीगढ़ की नींव रखी।सेक्टर एक से लेकर सेक्टर सैतालिस में पूरा चण्डीग़ढ़ समाया है, जिसमे से तेरह के अनलकी नम्बर को स्थान नहीं दिया गया है। इसके अलावा सड़को में करीने से लगाये हुए छायादार पेड़ हर मौसम में राहगीरों को छावं देते है। क्यूंकि सड़कों के किनारे पेड़ों को दो से तीन पंक्तियों के रूप में लगाया गया है जिससे कोई न कोई वृक्ष हर मौसम में छाया दे सके। इसके अतिरिक्त यहाँ के तापमान के मद्देनजर सुखना लेक नामक आर्टिफिशियल लेक का निर्माण भी ठंडी हवा के साथ साथ कई सारे उद्देश्यों की पूर्ती हेतु करवाया गया था।  स्वच्छता के मामले में तो कोई मिसाल ही नहीं है यहाँ की। चंडीगढ़ में स्वयं में तो कई दर्शनीय स्थल हैं ही, पर इसके अलावा ये कई सारे हिल्स स्टेशन के प्रवेश द्वार के रूप में भी जाना जाता है। अगर किसी को हिमाचल जाना है तो क्या मजाल उसकी जो  चंडीगढ़ को छोड़ के जा पाये। इसलिए सुनियोजित तरीके से बसाये गए इस शहर को मौका मिलने पर देखना तो जरूरी ही हो जाता है। भारत की राजधानी दिल्ली से चण्डीगढ़ हर तरह से पहुंचा जा सकता है। वायु मार्ग द्वारा करीब पैतालीस मिनट लगते है। ट्रेन और बस द्वारा भी अधिक से अधिक पांच घंटे में पहुँच जाते हैं।कई बार प्लान बनाया यहाँ आने का , हर बार कुछ ना कुछ व्यवधान पड़ा और नहीं आ पाये। किसी तरह से इस वर्ष के मई माह में हिमाचल आते जाते समय कुछ घंटे का समय चंडीगढ़ देखने के लिए हमने निकाल लिया। यहाँ के मुख्य दर्शनीय स्थलों में सुखना लेक, रॉक गार्डन, पिंजौर गार्डन , रोज गार्डन और कुछ संग्रहालय आते हैं।

                    एक मई को हम बैंगलोर से अपराह्न एक बजे दिल्ली से होते हुए चंडीगढ़ जाने के लिए जेट एयरवेज की फ्लाइट में बैठ गए। जिसने थोड़ा देर दिल्ली में रुकने के बावजूद शाम के पांच चालीस पर चंडीगढ़ की धरती पर उतार दिया। इस दौरान हमें एयरलाइन द्वारा मुफ्त में दिन का लंच और शाम का नाश्ता मिला। उतर  कर देखा तो एयरपोर्ट का नजारा बहुत बढ़िया था, क्यूंकि बाहर से देखने पर ये एक ग्लास की ईमारत जैसा लग रहा था  पर सुरक्षा को मद्देनजर यहाँ फोटोग्राफी करने की अनुमति नहीं थी। यहाँ भी हम पैदल ही बाहर निकल पड़े। एयरपोर्ट से बाहर निकलते निकलते ही साढ़े छह बज गया और हमारी बस दस बजे की थी।   उसे पकड़ने के लिए हमें  सेक्टर तैंतालीस पर स्थित बस अड्डे पर रात्रि नौ बजे पहुंचना जरुरी था। फ्लाइट में खाना मिला ही था तो अब और खाने का तो सवाल ही नहीं उठता था। मतलब अपने पास दो घंटे का समय था जिसमे हम बिना किसी टेंशन के आराम से घूम सकते थे और बैठने का  कोई ना कोई ठिकाना तो होना ही चाहिए। शाम के समय को देखते हुए हमने सेक्टर एक पर स्थित सुखना लेक जाने का मन बनाया जो यहाँ से करीब सौलह किलोमीटर की दूरी  पर स्थित है । जाने का साधन फिर से हमारी पुरानी साथी ओला कैब थी। इसका कारण भी एक जबरदस्त डील थी जो हमने पिछले वर्ष घर जाते समय ली थी। उन दिनों ओला कंपनी नयी नयी आई थी और इसमें ऑफर आया था जितना पैसा ओला वॉलेट में कस्टमर डालेगा उतना ही पैसा ओला भी डालेगी। और इसके साथ साथ ये भी था अगर ओला वॉलेट से पेमेंट करो तो ट्रिप का खर्च आधा पड़ेगा। उस समय हमने साढ़े तीन हजार रूपया डाल दिया था जिसने फाइनली दस हजार रूपये के मूल्य का काम किया। तब से आज  तक हम इस अवसर का लाभ उठा रहे थे। कमाल की बात ये रही ऐसा ऑफर दुबारा फिर नहीं आया।खैर ये तो बात थी ऑफर की, करीब आधे घंटे में हम सुखना लेक पहुँच गए। 
                   तीन वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैली सुखना लेक  के निर्माण भी कार्बूजियर की सूझबूझ का एक उत्कृष्ट  नमूना है। उन्होंने एक बरसाती नाले पर बांध बना कर इस झील का निर्माण कराया ,जिससे दो तरह से फायदा मिला। पहला ये कि शहर में बरसाती पानी का फैलाव रूक गया और दूसरा ये कि नगरवासियों को एक बढ़िया पिकनिक स्पॉट मिल गया। इससे  सुबह शाम जॉगिंग के लिए पर्याप्त जगह मिल गयी और अगर शाम को यहाँ बैठ जाओ तो एक बढ़िया सूर्यास्त के दर्शन तो हो ही जायेंगे। पर्यटकों के लिए भी समय बिताने के लिए ये बहुत अच्छी जगह है  जहाँ जाने का कोई पैसा नहीं लगना है। मुख्य जगह से लेक की तरफ जाने को ढलवा सीढ़ीदार रास्ता बना हुआ है जिन पर बैठकर के सैकड़ों पैडल बोट की सवारी करते हुए लोगों के साथ साथ पीछे दिखती पहाड़ियों को भी देख सकते हैं। पैडल बोट में चार लोगों के बैठने की जगह थी। यदि दो लोगों को बैठना हो तो प्रति व्यक्ति सौ रुपया और अगर चार लोगों का समूह हो तो प्रति व्यक्ति पचास रुपया लग रहा था और बोटिंग की ड्यूरेशन आधा घंटा रहती है। टिकट छह बजे से पहले लेना रहता है। इसके अतिरिक्त अगर कोई व्यक्ति चलकदमी में रूचि रखता हो तो लेक के सहारे बने पैदल पथ को भी नाप सकता है। हमारा ऐसा कोई विचार नहीं था ,इसलिए कुछ देर यहां बैठकर लेक को निहारा और कुछ फोटो ले लिए।  थोड़ी देर यहाँ बैठने के बाद हम दूसरी तरफ बने पार्क में आराम से बैठकर सुस्ताने के लिए चले गए। बढ़िया सी हरी घास  और आसपास लगे छायादार पेड़ किसी यात्री को इससे ज्यादा क्या चाहिए। पर शाम का समय होने के कारण मच्छर जरूर मडरा रहे थे और उसके साथ साथ डेंगू का खतरा भी ,तो बार बार जगह जरूर बदलनी पड़ी। अब तक मारे गर्मी के खाने का तो नहीं परन्तु कुछ कोल्ड ड्रिंक का मन जरूर हो गया था। सुखना लेक के पास बने इस पार्क में तो खाने पीने का कुछ जुगाड़ नहो दिख रहा था तो हम इस पार्क से बाहर निकले और दूसरे गेट से सुखना बोटिंग काम्प्लेक्स के अंदर चले गए।यहाँ पहुँचते ही खाने चुंधियाँ गयी, बहुत चमक दमक वाली जगह थी ये ।इसे देखकर नैनीताल के फ्लैट्स की यादें ताजा हो गयी। यहाँ बच्चों के लिए छोटे मोटे झूले,पेड़ों के आसपास लगी चमकदार बिजली की मालायें, कई सारी खाने की दुकाने और इसके अलावा ढेर सारे लोग। कुल मिलाकर मेले का सा माहौल था इस जगह पर ।एक ठीकठाक सी दुकान में खाने का आर्डर देने गए तो मन डोसे पर जा के अटक गया,क्या करें साउथ इंडिया का असर  नार्थ जा के भी पीछा नहीं छोड़ता और इसके साथ के लिए मंगवायी पंजाब की शान लस्सी। जब तक खाना आता तब खुले में लगी कुर्सी मेज में से एक हमने अपने लिए भी छाँट ली और बैठकर चमक दमक निहारने लगे ।इतने में अपना डोसा आ ही गया और इतना करते करते साढ़े आठ बज गया और हम बस अड्डे की तरफ चल पड़े।अगली पोस्ट में देखते हैं वापस आते समय हमने चंडीगढ़ में  क्या क्या देखा,तब तक के लिए आज्ञा दीजिये।
यात्रा के दौरान लिए गए चित्र-
चंडीगढ़ की साफ़ सुथरी व्यवस्थित और हरी भरी सड़क 
सुखना लेक में बोटिंग करते लोग और पार्श्व में दिखती पहाड़ियां 
बोट हाउस की तरफ दिखता फाउंटेन 
लेक पर जाने के लिए बनी सीढियाँ ,क्या हुआ सूर्यास्त के समय तक नहीं पहुंचे ,चन्द्रमा के दर्शन तो हो ही गए 
सुखना लेक पार्क