Friday 4 August 2017

Lingaraj temple-Landmark of Bhubaneswar

 Travel Date- 19th January 2017
           विशाखटपटनम से जो ट्रैन में बैठे तो सीधे भुबनेश्वर के पास ही नींद खुली। अभी चाय वाला चाय गरम,चाय गरम करने लगा तो हम भी चाय की चुस्कियों का स्वाद लेने को आतुर हो गए। वैसे हम दोनों से ज्यादा सान्वी का मन हुआ क्यूंकि ट्रैन के सफर में जो कुछ खाने पीने को आता है उसे वो सब मंगाना होता है ☕, बाल हठ हुआ उसके आगे आजतक किसका जोर चला है। अब चाय आ ही गयी है तो चुस्की लगा ही लेते हैं। अब तक सहयात्रियों से हलकी फुलकी बात से उन लोगों को अंदाजा आ गया कि हम बैंगलोर से उड़ीसा घूमने के लिये आये हैं तो उन्होंने हमे जगन्नाथ पूरी का एक वीडियो दिखाया जिसमे वहाँ की विशेषताएं, भोजन बनाने के तरीके और झंडा बदलने का विधान शामिल था।  अब इसे देख कर पूरी जाने की उत्कण्ठा में चार गुना वृद्धि हो गयी। अलग अलग जगह के लोगों की बोली में कितना अंतर आ जाता है बताती हूँ!! हमारे पास वाली बर्थ  में दो लोग बैठकर बात कर रहे थे " आज खेला है ,तुम देखेगा  " दूसरा बोलता है "हम खेला नहीं देखते बस न्यूज़ में पता कर लेते हैं। " यहाँ इन लोगों का खेला से मतलब क्रिकेट मैच से है। यूँही लोगों की बातें सुनते हुए भुबनेश्वर का रेलवे स्टेशन आ गया और सहयात्रियों से विदा ले कर हम उतर गये।
           इस तरह से आज हम धार्मिक पर्यटन के लिए विख्यात उड़ीसा की राजधानी भुबनेश्वर की पावन धरती पर पहुँच गये। हमने पहले से देख कर ही रेलवे स्टेशन के नजदीक का होटल बुक करा रखा था तो पैदल ही वहां पहुँच गए। होटल में जा कर पता लगा कि आज यहाँ IPL का मैच है जिस वजह से सभी होटल बैक टू बैक भरे हुये हैं। पहले से बुकिंग के कारण हमको तो कोई दिक्क्त नहीं होनी थी पर थोड़ा थके होने के कारण अर्ली चेक इन का मन था पर इस मैच ने हमारे मंसूबों पर पानी फेर दिया।  अब समझ में आया ट्रैन वाले लोग इसी मैच को देखने की बात कर रहे थे। होटल देखने से खूब बढ़िया था, रिसेप्शन में बैठकर भी इसकी भव्यता स्पष्ट नजर आ रही थी। अब अपना नंबर भी आ ही गया , अरे ये क्या !! ये तो होटल में कमरा देने से पहले वेब केम ( web cam) में फोटो भी ले रहे हैं शायद सुरक्षा के हिसाब से लेते होंगे। इस तरह का ये अपना पहला अनुभव है तो आश्चर्यजनक लगा।  फोटो खींचते खिंचवाते हम अपने कमरे में दाखिल हो ही गये और कमरे में पहुँचते ही दो चाय, दो पराठे एवं  हैंडविच मतलब सैंडविच का आर्डर दे डाला। ये सब आने तक थोड़ा फ्रेश हो लेते हैं और पेट पूजा के बाद भुबनेश्वर के दर्शन को निकलेंगे।  तब तक आप लोगों को भुबनेश्वर का एक सूक्ष्म परिचय दे देते हैं।
भुबनेश्वर - भारत के पूरब और बंगाल की खाड़ी के मुहाने पर बसा ये शहर भुबनेश्वर  शिवजी को समर्पित है और उन्ही के नाम पर इसका नाम भुबनेश्वर पड़ा है। इतिहास में जायें तो समझ आता है कि  ये शहर मात्र शहर नहीं अपने में की रहस्य समेटे हुए बैठा है। अरे हाँ इसने तो कलिंग का युद्ध भी देखा है।  ऐसा भयंकर रक्तपात, खून की नदियों और शोक सन्तप्त लोगों का विलाप देख के इसका दिल कितना द्रवित हुआ होगा !! बहुत दर्द छुपा रखा है इसने अपने अंदर अंदर। इस बात की जितनी गहराई में उतरेंगे मन उतना ही द्रवित हो जायेगा इसलिये जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी बाहर निकल जाते हैं। अभी अभी मुझे याद आया पुराने समय में इसे "उत्कल" भी कहा कहा जाता था , जी हाँ वो ही  " पंजाब सिंध गुजरात मराठा द्रविड़ उत्कल बंगा " वाला उत्कल। इसका मतलब पुराने समय से ही बहुत प्रसिद्ध ह है ये जगह। कालांतर  में उड़ीसा के राजधानी बनने के बाद इस शहर का स्वरूप दोहरा हो गया , जहाँ एक तरफ इसके कण कण में ऐतिहासिकता बसी है वहीँ दूसरी तरफ इसकी हवाओं में आधुनिकता भी बहती है। इसके आधुनिक स्वरूप का निर्माण जर्मन वास्तुकार ओटो एच कोनिंग्सबर्गेस (Otto. H. Koeingsberges) ने करवाया था। 
              ऐसा माना जाता है कि पुराने समय में यहाँ पर सात हजार मंदिर थे जिसके कारण इसे मंदिरों का शहर के नाम से भी पहचाना जाता है। आज भी छोटे बड़े सात सौ मंदिर यहाँ पर हैं। इस शर को धार्मिक सद्भावना का शहर भी कह सकते हैं क्यूंकि यहाँ पर ना केवल हिन्दू धर्म अपितु बौद्ध और जैन धर्मावलम्बियों के मंदिर और अवशेष पाये जाते हैं। मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा यहाँ क्या देखा जायेगा इतने कम समय में और कितना  कुछ रह जायेगा। एक बार यहाँ के दर्शनीय स्थलों पर भी एक नजर डाल लेते हैं। मंदिरो की भूमि होने से यहाँ हर दो कदम पर मंदिर दर्शन हो जाते हैं। लिंगराज का मंदिर, मुक्तेश्वर मंदिर, राजा रानी का मंदिर यहाँ के प्रमुख धार्मिक स्थल हैं। इन सबके अतिरिक्त उदयगिरि-खण्डगिरि की गुफाएँ, धौली स्तूप और नन्दन कानन यहाँ की प्रसिद्धि में चार गुना बढोत्तरी कर देते हैं। यहाँ का मौसम सालभर गर्म ही बना रहता है तो घूमने के लिए दिसम्बर-जनवरी के महीने उम्दा रहते हैं। लो जी परिचय देते देते अपना नाश्ता निपट गया और अपना टेक्सी वाला भी होटल के बाहर प्रतीक्षा में है तो अब आगे आंखों देखा हाल सुनिये।
         सुबह के ग्यारह बजे हैं 😀, सुबह क्या भरी दोपहरी ही हो गयी है और अब हम निकल पड़े भुबनेश्वर दर्शन के लिये। हमारा पहला पड़ाव लिंगराज मंदिर है जो कि हमारे होटल से पांच किलोमीटर की दूरी पर है इसलिए यहाँ पहुँचने में ज्यादा समय नहीं लगा। मन्दिर में फ़ोन, कैमरा और चमड़े का सामान ले जाने की अनुमति नहीं है तो ड्राइवर के कहे हिसाब से हमने ये सामान गाड़ी में ही छोड़ दिया और नंगे पैर ही चल पड़े। गर्मी ज्यादा होने से पैर जल भी रहे थे पर लोग तो कहाँ कहाँ से नंगे पैर चल कर दर्शन के लिये जाते हैं हमें तो बस पांच कदम ही चलना है।  अभी मंदिर के मुख्य द्वार पर पहुंचे ही थे कि एक पंडा जी मिल गये और बोलने लगे पचास रूपये में दर्शन करवा देंगे , उनसे ज्यादा किचकिच ना कर के हम उनके पीछे हो लिये। पंडा जी हमको समझाते हुये ले गए की अंदर किसी से ज्यादा बात ना करना सीधे सीधे जाना और वापस आ जाना और सबसे पहले वो हमको ले गये यहाँ की रसोई में  और वहां के खाना बनाने के तोर तरीके बताने लगे। यहाँ भी एक एक ऊपर एक सात मिटटी के बर्तन चूल्हे पर चढ़ाये जाते हैं और सबसे पहले सबसे ऊपर वाले में खाना बनता है। कैमरा तो ले जा नहीं सकते थे तो फोटो नहीं हैं दिखाने को।  इसके बाद अब हम मंदिर दर्शन की बारी आयी और पंडा जी ने हमको लाइन में लगवा दिया। धीरे धीरे कर के हम ठीक प्रतिमा के पास पहुँच गये। अब वहां खड़े एक पंडे ने  एक फूल हाथ में पकड़ा  दिया और अब वो महाराज संकल्प कराने लगे हमारे बिना कुछ कहे !! हम दोनों को इस तरह का कोई खास अनुभव पहले नहीं था तो मूक दर्शक बने खड़े रहे।  लास्ट में बोला अन्नदान की रसीद कटवा लो और पूछने पर जवाब आया कि पांच हजार से शुरू होता है तो हमने इंकार कर दिया कि हम एक पैसा नहीं देंगे और अब वो लगा अनाप सनाप बोलने !! तो हम वहां से वापस हो लिये तो बोला  मेरा फूल भी बर्बाद हो गया तो एक बार फिर पीछे प्लाट कर उसका फूल उसको वापस कर के हमने जान छुड़ाई। ये बात यहाँ बताने का मेरा आशय ये है कि जहाँ भी जाएँ अपनी श्रद्धा के हिसाब से दान पुण्य करें न कि पंडो के डर से ।  भगवान ने कभी ये नहीं कहा कि तुम पैसा नहीं चढ़ाओगे तो मैं ऐसा कर दूंगा या वैसा कर दूंगा!! ये इन पंडों  की अपने पेट पालन हेतु  बनाई हुयी परम्पराएं है जिनका पालन करने की बाध्यता किसी के लिये भी नहीं है। 

           अंत में ही सही लिंगराज मंदिर का इतिहास भी बता ही  देती हूँ। ये मंदिर भगवान शिव और विष्णु दोनों को समर्पित है।  यहाँ प्रतिमा का आधा हिस्सा शिवजी का तो ऊपर वाला भाग विष्णु भगवान के रूप में शालिग्राम जी का है।  इस कारण से इस मंदिर को हरीहर का मंदिर भी कहा जाता है।  यहाँ बेलपत्र के साथ साथ तुलसी के पत्ते भी चढ़ाये जाते हैं। विष्णु भगवान् एवं शिव जी दोनों का मंदिर होने के कारण इसके गुम्बद त्रिशूल और सुदर्शन चक्र की जगह में शिव धनुष बना हुआ है। मंदिर परिसर को चार हिस्सों में बांटा गया है - श्री मंदिर, जगमोहन, नाट मंडप एवम भोग मंडप। पहले यहाँ पर छोटे बड़े एक सौ आठ मंदिर थे जिनमे से अब पचास ही बचे  हैं। स्थपत्य की दृष्टि से ये मंदिर काफी समृद्ध है मंदिर के निचले भाग में एक मंच सा बना हुआ है जिसमें बहुत बारीकी से उस समय के समाज की दिनचर्चा को उकेरा गया है। 
        लिंगराज के बाद हम क्रम  से मुक्तेश्वर, सिद्धेस्वर और केदारगौरी इन तीन मदिरों में गये।  मुक्तेश्वर मन्दिर दो मन्दिरों का समूह है: परमेश्‍वर मन्दिर तथा मुक्‍तेश्‍वर मन्दिर। जैसा कि नाम से ही समझ आ रहा ये मंदिर भी शिवजी को समर्पित है। शिव जी के साथ साथ अन्य देवी देवताओं के मंदिर यहाँ पर हैं। मंदिर ना कह के इसे मंदिर समूह कह सकते हैं। इसकी संरचना भी कुछ कुछ लिंगराज मंदिर जैसी ही है। इस मंदिर में फोटो ले सकते हैं। सिद्धेश्वर मंदिर सफ़ेद रंग का बना हुआ है और पास के ही केदार गौरी मंदिर में  पहाड़ी मंदिरों की जैसी झलक नजर आई।  
अब एक नजर कुछ तस्वीरों पर-

मुक्तेश्वर मंदिर। 

मुक्तेश्वर मंदिर 
मुक्तेश्वर मंदिर 



मुक्तेश्वर मंदिर प्रवेश द्वार। 

मंदिर का अलंकरण 
सिद्धेस्वर मंदिर। 



केदार गौरी 

केदार गौरी , लग रहा है न पहाड़ी मंदिर। 

केदार गौरी 

केदार गौरी 

केदार गौरी -प्रवेश द्वार।