Friday 13 November 2015

Around Port Blair ...पोर्ट ब्लेयर के आसपास के नज़ारे

                  आज  के दिन  तय  प्रोग्राम के अनुसार रॉस आइलैंड एवं माउंट हैरियट जाना था। पर आज जो घटना हुयी वो इस इस बात का पुख्ता उदाहरण है कि नर सोचे और नारायण करे औरअचानक ही परिवार में किसी की तबियत खराब होने से मेरे हसबैंड को अपनी फ्लाइट मोडिफाई कर के कोलकाता  से होते  दिल्ली जाना पड़ा यात्रा में थोड़ा व्यवधान तो पड़ा,फिर भी भगवान को धन्यवाद देना बनता था कि ये घटना ट्रिप के अंतिम दिनों में ही हुई। इसलिए हम अभी तक लगभग अपने मुख्य इंटरेस्ट की जगहें देख चुके थे।  बस साथ में ले जाया हुआ बीस रूपये का नोट जो धरा का धरा रह गया उसका थोड़ा अफ़सोस था। अब यहाँ हम चार  लोग ही रह गए जिनमे दो बुजुर्ग और एक छोटा बच्चा शामिल थे। अब ये लोग किसी भी हालत में  छोटे बच्चे के  साथ ज्यादा दूर और पानी वाली जगह में जाने को तैयार नहीं थे।इसलिए प्लान में आमूलचूल परिवर्तन करते  हुए लोकल पोर्ट ब्लेयर देखने का मन बनाया गया। वैसे अब तक यहाँ के मुख्य आकर्षण जॉली बॉय आइलैंड,कोर्बिन्स  कोव बीच ,सेलुलर जेल एवं म्यूज़ियम इत्यादि हम पहले ही देख चुके थे। अब यहाँ के दर्शनीय स्थलों में से हमारी देखने वाली जगहों में जॉगर्स पार्क ,गांधी पार्क और राजीव गांधी वाटर पार्क और चाथम सौ(आरा मिल) मिल बचे थे ,जिसमे राजीव गांधी पार्क में वाटर स्पोर्ट्स का आयोजन होता है, तो हमारा वहां जाने का कोई खास मन नहीं था।इसलिए आज के दिन की शुरुआत भले मॉर्निंग वाक के साथ नहीं हुई पर फिर भी  जॉगर्स पार्क से ही हुई। 
जॉगर्स पार्क का एक दृश्य 
 अब देखते हैं क्या खास है जॉगर्स पार्क में

                       जैसा कि नाम से ही  पता लग रहा है वीआईपी रोड पर स्थित जॉगर्स पार्क सुबह और शाम वाक और जोगिंग करने वालों की भीड़ से भरा हुआ रहता है। जब काफी देर समुद्र  की लहरों  के साथ  मस्ती करने  के बाद जब कदम थकान से डगमगाने लगें तो चार पल शांतिपूर्ण वातावरण में बैठने के लिए इससे पार्क से बेहतर कोई जगह नहीं हो सकती है। ये जगह पोर्ट ब्लेयर की ऊँची जगहों में से एक है,जहाँ से शहर के नयनाभिराम दृश्य देखे जा सकते हैं। इस स्थान की सबसे बड़ी विशिष्टता इसका वीर सावरकर हवाई अड्डे से मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर होना है। यहाँ आराम से शांतिपूर्ण वातावरण में  बैठकर वायुयानों को उड़ते और लैंड होते हुए देख सकते हैं। ये  पार्क सुबह साढ़े पांच बजे से रात्रि के आठ बजे तक खुला रहता है। सबसे मजेदार बात ये है क़ि यहाँ जाने की कोई फीस नहीं पड़ती। यहाँ पर खड़े हो के रनवे तो रनवे,आने जाने वाले वायुयानों की  हर गतिविधि पर नजर रखी जा सकती है,हालाँकि हम इतने खुशकिस्मत नहीं थे कि  उड़ता या लैंड होता जहाज देख पायें, क्यूंकि यहाँ गिनी चुनी फ्लाइट्स आती हैं। सुबह आने वाली वाली आ के चली गयी और दूसरी के आने में अभी काफी वक्त था। कड़ी धूप में ज्यादा देर रुका नहीं जा रहा था। इसलिए सामने  दिखने वाले रनवे का ही फोटो लेने का सोचा। इतने में जेब से कैमरा निकला तो पता लगा उसका मेमोरी कार्ड गायब है और एक बार फिर कई  साल पुराने मोबाइल के  कैमरा ने साथ दिया। उसका रिजल्ट आपके सामने है।
                               
जॉगर्स पार्क से दिखता वीर सावरकर एयरपोर्ट का एक मात्र रनवे 
                             कुछ देर यहाँ बिताने के बाद हम अब गांधी पार्क की और जा रहे थे तभी रास्ते  में भारत के नक़्शे की तरफ नजर पड गयी। जो जगह देश प्रेम के  मतवालों की हो वहां भारत के नक़्शे का होना तो  आवश्यक ही है।
मेरा भारत महान 
                               इसके बाद हम गांधी पार्क के मुख्य द्वार पर पहुँच ही गए।अंडमान के लिहाज से गांधी पार्क एक अच्छी जगह है ,पर भारत के अन्य हिस्सों से आने वालों को उतनी खास नहीं लगेगी। अब जैसे कोई बैंगलोर से जाये जो कि खुद ही गार्डन सिटी के नाम से फेमस है ,तो उसके मन में ये पार्क रच बस नहीं पायेगा। परन्तु  बच्चों के साथ आने वाले पर्यटकों के  लिए ये एक ठीकठाक जगह है ,बच्चों के लिए काफी कुछ है यहाँ पर।नाम के अनुरूप यहाँ गांधी जी की एक प्रतिमा लगी हुयी है।उसके अतिरिक्त एक बच्चों की खिलौना ट्रैन है। खिलौना ट्रैन वाले और मेरे बीच के वार्तालाप की एक झलक -"कितने पैसे लगेंगे भईया ,जी अस्सी रूपये ,अब पता नहीं बच्चा बैठेगा या नहीं ,मैडम बच्चा आपका है आपको पता होगा कि बच्चा बैठेगा या नहीं। "  वैसे मेरा मन ये  था एक बार बैठा के देख लेते ,अगर ठीक लगता तो पैसे दे देते। पर जब उसके गरम अंदाज देखे तो हम वहां से ट्रैन का मोह छोड़ के निकल लिए। यहाँ पर एक छोटी सी क्रतिम झील भी है जो शायद बच्चों को बोटिंग करने के लिए इस्तेमाल होती हो। इसके अलावा एक बड़ी झील है जिसके चारों और ये पार्क बना हुआ है। पहले हमारा विचार पूरे पार्क का एक चक्कर लगाने का था ,पर जब थोड़ा दूर जा के ऐसा लगा कि सब जगह से लगभग एक ही तरह के दृश्य दिखाई दे रहे हैं ,तो हम वहीँ से वापस हो लिए।इस लेक में पैडल बोट की सुविधा भी उपलब्ध है। हमने कई जगह बोटिंग करी है तो इस छोटी सी झील में बोटिंग का कोई इरादा नहीं था। इस पार्क के कुछ दृश्य -
     
खिलौना ट्रैन गूगल द्वारा 
लेक में खड़ी पैडल बोट 
लेक के किनारे किनारे चलने के लिए बना पैदल पथ 
                      अंडमान आइलैंड का बाजार मोती और कोरल के लिए काफी प्रसिद्ध माना जाता है। कहते हैं कि यहाँ पर सच्चा मोती कम दामों  में मिल जाता है। इसलिए हम भी चले गए सच्चा मोती खरीदने ,अब हम तो ठहरे ग्राहक ,क्या जाने कौन सा मोती सच्चा है और कौन सा झूठा। फिर भी इससे पहले मैंने नवाबी नगरी हैदराबाद से मोती खरीदे थे। वहां का अनुभव थोड़ा काम आया,वहां किसी ने कहा था मोती को रगड़ के देखना चाहिए और खरोच आने के बाद पानी लगा के देखो फिर पहले जैसा दिखने लगे तो सच्चा माना जाता है ,सो यही फार्मूला आजमा के कर ली थोड़ा खरीददारी। यहाँ से बाहर निकलने तक रात ही हो गयी थी ,तो सोचा एक बार फिर से भारत के नक़्शे के दर्शन करते हुए ही होटल वापस जाएँ। 

जगमगाता हुआ भारत का नक्शा 
                            यहाँ से होटल वापस जा के एक बार फिर चौखट के भोजन का जमकर आनंद उठाया ,और अपना सारा सामान कर जल्दी ही सो गए। अगला दिन अंडमान को अलविदा कह कर वाया चेन्नई शताब्दी एक्सप्रेस से  बैंगलोर पहुँचने के लिए निर्धारित था। इसी के साथ सफेद रेत अंडमान आइलैंड की अविस्मरणीय यात्रा का सुखद समापन हो गया।

अंडमान का सफर एक नजर में -



Tuesday 3 November 2015

Havelock to Port Blair...कितना यादगार था हेवलॉक से पोर्ट ब्लेयर का वो सफर,देखने को कुछ था तो बस हर तरफ बिखरा हुआ नीला रंग

                     पोर्ट ब्लेयर जाने वाली फेरी में बोर्डिंग में थोड़ा समय बचा था ,तो सोचा यहीं इधर उधर टहल कर हैवलॉक की थोड़ी और यादें समेट लें  और साथ के साथ कुछ नाश्ते का बच्चे के लिए कुछ नाश्ते का सामान पारले जी बिस्कुट ,थोड़े बहुत चिप्स और कुछ छोटे छोटे फ्रूटी के डब्बे भी रख ले,जो आगे सफर में काम आएं। इस समय हमारा घूमने का एरिया जेट्टी के आसपास का ही था, तो वहां सब पोर्ट ब्लेयर वापस जाने वाले लोगों की भीड़ दिखाई दे रही थी। वहीँ पास में एक बस स्टेशन था और पास के पार्क में कुछ झोपड़ीनुमा बैठने की जगह बनी हुयी थी जिनमे बैठकर कुछ और नहीं तो कम से कम तपती हुयी धूप से तो बचा ही जा सकता था।यहाँ  घूमते-घूमते एक मंदिर के दर्शन भी हो गए। घूम फिर के हम फिर वापस जेट्टी पर आ गए क्यूंकि अब बोर्डिंग का समय भी हो गया था। जाते जाते जेटी का एक फोटो भी खींच ही लिया,हालांकि जो देख के आ रहे थे उसके आगे ये दृश्य कुछ भी नहीं था -

बीच नंबर १ 


राधानगर बीच को जाने वाली बस 


पार्क 
                        जेट्टी से फेरी में बैठने के बाद आधा घंटा लगभग  हमने वहां के माहौल से अभ्यस्त होने में लगाया,उसके बाद थोड़ा बैचेनी सी होने लगई। बात ये थी कि अब जब फेरी ओपन डेक है तो हम नीचे बैठकर क्या कर रहे हैं,इसलिए हम पांच यात्रियों में से दो डेक में किस तरह का माहौल है ये देखने के लिए चले गए। अब एक बार डेक पर पहुंचे तो वहां जा कर जो भीड़ दिखी उसमे अचम्भे में डाल दिया,क्यूंकि लगभग सभी लोग डेक पर मौजूद थे। कोई खड़ा था तो कोई बैठा था और सब लोग नीले रंग की महिमा देख रहे थे,नीचे देखो तो नीला पानी,सर उठाकर के ऊपर देखो तो नीला आसमान। जब तक हैवलॉक नजदीक था तब तक थोड़ा हरा रंग भी दिख रहा था,उसके बाद तो कुछ दिख रहा था तो बस नीला समंदर। अब तक हमारे अन्य साथी भी डेक पर आ गए  थे।पूरे सफर में बहुत खूबसूरत नज़ारे देखे , खूब फोटोग्राफी की,यहाँ के  खूबसूरत दृश्यों की प्रशंसा में कसीदेकढ़े।  इसके साथ साथ जब लहरों के बीच जब जहाज हिचकोले खा रहा था तो अपने समय में आने वाले बच्चों के सीरियल का टाइटल सांग भी याद आ रहा था "अगर मगर डोले नैय्या ,लहर लहर जाये रे पानी ,डूबे न डूबे न मेरा जहाजी " ।
            ओपन डेक वाली फेरी में बच्चों के साथ ट्रेवल करने से बहुत ज्यादा ध्यान देने की जरूरत होती है,क्योंकि बच्चे इधर उधर ज्यादा करते हैं तो थोडा रिस्की हो जाता है,हम लोगों को इस मामले में ज्यादा परेशानी नहीं हुई क्योंकि छोटा पार्टनर सो गया था।बहुत देर तक नीले समंदर और नीले आकाश के मध्य हिचकोले खाने के बाद सूर्यास्त का समय हो आया और   यहाँ  पर  अंडमान का दूसरा बेहतरीन सनसेट दिखा गया ,जिससे हमारा राधनगर में सनसेट नहीं देख पाने का अफ़सोस थोडा कम हो गया।यहाँ पर सूर्य देवता ने खुले आसमान के साथ अपना हर रंग दिखाया।कभी आग का गोला जैसा तो कभी सुनहरे आसमान के मध्य एक चमकदार बिंदु जैसा।सूर्य देव तो सूर्य देव आज तो चंद्रमा भी हम पर मुक्त हस्त से कृपा बरसा रहे थे।जी हाँ पुर्णिमा के पूर्ण गोलाकार चंद्रमा ने भी यहाँ हमें दर्शन दे ड़ाले।पर सूरज और चंद्रमा दोनों के एक साथ दिखने के बावजूद भी उन्हें फ़ोटो में एक साथ नहीं ले पाये,क्योंकि दोनों की दिशाएं आशा के अनुरूप अलग अलग थी।
                            पूनम  का चाँद










                          सूर्यास्त के बाद अचानक से अँधेरा हो गया ,और अब   स्याह सा आसमान दिखने लगा।अब  समुद्र की भी  बस आवाजें आ रही थी,वो भी लगभग काला ही दिख रहा था। अब जब कुछ दिख ही नहीं रहां था तो डेक में बैठकर भी क्या करना था तो हम एक बार फिर अपनी सीट परजा के विराजमान हो गए। सात बजे लगभग एक बार फिर डेक पर पधारे ये दिखने के लिए कि अभी पोर्ट ब्लेयर कितना दूर दिख रहा है और रात के अँधेरे में कैसा दिख रहा है। देखते देखते कुछ फोटो भी खिंच लिए - 


जगमगाता हुआ पोर्ट ब्लेयर 
जगमगाता हुआ पोर्ट ब्लेयर 
माउंट हैरियट के लाइट हाउस का प्रकाश 
                               ये फोटो लेने तक हम पोर्ट ब्लेयर  पहुँचने ही वाले थे, तो नीचे जा कर उतरने की तैयारी के साथ-साथ राजू भाई को भी फ़ोन लगा लिया  जो कि पहले से ही जेट्टी पर मौजूद था,यहाँ से निकल रात के अँधेरे में खड़े हुए जहाजों को देखना बहुत अच्छा लग रहा था। इतने में राजू भाई आ गए और हम एक बार फिर उनकी गाड़ी में सवार हो कर, अगले दिन के प्रोग्राम के विषय में  हुए दुबारा से चौखट पहुँच गए। 


अंडमान का सफर एक नजर में -



Around Port Blair ...पोर्ट ब्लेयर के आसपास के नज़ारेफेंटा बीच

Saturday 24 October 2015

 अल्मोड़ा की सांस्कृतिक विरासत है रामलीला मंचन और रावण परिवार के पुतलों का दहन

              गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामायण से तो सभी लोग परिचित होंगे,उसके दो सौ वर्ष बाद अल्मोड़ा के सम्मानीय विद्वान पंडित देवीदत्त जोशी जी ने रामलीला नाटक का सृजन किया,जिसमे उन्होंने कई सारे गीतों को मिलाकर पूरी कथा बनाई।विश्व की इस सबसे लंबी नर्त्य नाटिका का नाम यूनेस्को की विश्व सांस्कृतिक सम्पदा सूची में भी विद्यमान है।ऐसा माना जाता है सन अट्ठारह  सौ साठ में अल्मोड़ा के बद्रेश्वर मंदिर में पहली रामलीला का आयोजन किया गया था।ये नृत्य नाटिका बहुत जल्दी ही कुमाऊं के साथ साथ गढ़वाल मंडल में भी प्रचारित हो गया,और धीरे धीरे उत्तराखंड के बाहर भी इसने अपना स्थान बना लिया।इस नृत्य नाटिका का मुख्य आकर्षण ये है कि इसमें सभी कलाकार अभिनय के साथ साथ अपने संवादों को याद कर के स्वयं गाते थे।जैसे जैसे ये नाटिका उत्तराखंड से बाहर गयी वैसे वैसे इसका रूप रंग भी परिवर्तित होने लगा और अकेले अल्मोड़ा में भी कई जगह इसका मंचन होने लगा।मेरी याददाश्त में हुक्का क्लब,नंदा देवी,धरनौला,कर्णाटक खोला एवं पांडे खोला में रामलीला मंचन होता था।पिछले कुछ वर्षों से पांडे खोल में रामलीला मंचन बंद हो गया।अक्सर हम लोग धारा नौला की या फिर नंदा देवी में होने वाले रामलीला मंचन को देखने जाया करते थे।एक दिन शाम को बाजार से घर वापस आ रहे थे तो नंदा देवी में सजे मंच को देखे बिना रहा नहीं गया और बचपन में देखी रामलीला और पुतलों का पूरा फ्लॅशबैक आँखों के सामने आ गया और इस वर्ष कई और मोहल्ले भी पुतले बनाने लगे हैं। अब ये संख्या पहले से बढ़कर चौबीस हो गए हैं। ये सुन कर के मन अति उत्साह से भर गया था। एक साथ खड़े ये रावण परिवार के सदस्य कैसे अपने कलाकरों की कला का प्रदर्शन कर रहे थे और कैसे लोगों का हुजूम इन्हे देखने के लिए उमड़ा था-     
पंक्तिबद्ध पुतले और उन्हें देखने के उमड़ी भीड़ 
            आज इस पोस्ट को  लिखते समय ऐसा लग रहा है कि ये यात्रा वृत्तांत न होकर एक संस्मरण सा बन रहा है पर यादों को आने से रोकना असम्भव हो जाता है।उन दिनो हमारे लिए दशहरे का मतलब होता था पूरी मस्ती का पैकेज ,एक तो दस दिन तक स्कूल से छुट्टी और घर के बड़े लोग एक एक दिन नंबर लगा के सभी दुर्गा मंडलों में और बाजार के मंदिरों में जाया करते थे इससे अपनी भी बाजार घूमने की चांदी हो जाती थी।अल्मोड़ा की एक खास बात और भी है वो ये कि यहाँ आपको हर कदम पर मंदिर देखने को मिल जायेंगे।इसलिए हमलोगों का सही रहता था दिन में बाजार रात में रामलीला उस समय और चाहिए ही क्या होता था।इस बार कई सालों बाद इन दिनों अल्मोड़ा आना हुआ तो पता लगा आज के बच्चों में वो उत्साह नहीं रह गया।शायद उनके मनोरंजन के ढंग ही बदल गए हों।मुझे तो आज भी कुछ कुछ कलाकारों के संवाद और गाने थोडा थोडा याद है।पूरी रामलीला में ताडिका का अभिनय ,सीता स्वयंमवर,सीता हरण ,सूर्पनखा नासिका छेदन,अंगद रावण संवाद ,लक्ष्मण शक्ति जैसे प्रसंग बहुत रोचक बन पड़ते थे। एक बात और याद आ गई धनष यज्ञ में रामजी का धनुष तोड़ने में उतना आनंद नहीं आता था जितना कि एक गुदड़ी राजा के यह कहते हुए कि "तोड़ू पुराना धनुष आज शिव शंकर वाला"और एक एक कर अपने पहने हुए बहुत सारे कपड़ों को खोल खोल कर इधर उधर फेंकना। कहने में तो अब अजीब सा लगता है परन्तु बचपन में राम के पक्ष के लोगों की बजाय रावण के पक्ष के किरदार अधिक अच्छे लगते थे जैसे ताड़िका जो कि ये गाना गाती थी "मैं तो ताड़िका हूँ तड़ तड़ कर ताड़ करती हूँ", खर-दूषण का अभिमान से भरा गाना "सुर नर नाग असुर मुनि जेते" और उसके बाद रामचन्द्र जी को पहचानने के बाद का इस तरह का अभिनय "हैरान हूँ में देख के इस छबि का क्या करूं। "छः महीने तक सोने वाले विशालकाय कुम्भकर्ण को कैसे भूल सकते हैं -"राम को खाऊँ, लखन को खाऊं,सीता को कच्चा चबाऊं" या फिर रावण का अपनी सभा में यह आदेश देना "मंत्री नाच गाने का प्रबन्ध करो"आदि। नौ दिन तक राम जन्म से रावण वध तक की कथा को बड़े रोचक ढंग से मंचित होते देखने के बाद दशहरे के दिन कड़ी मेहनत से बनाये रावण परिवार के पुतलों को पूरे शहर में घूमाने के बाद स्टेडियम में दहन करा जाता है। जब हम बचपन में पुतले देखने जाते थे तो शायद दस से बारह ही बनते होंगे। तब से आजतक बढ़ते बढ़ते रावण परिवार के पुतलों की संख्या चौबीस पहुँच गयी है। जो राक्षस जिस क्रम में मारा जाता है वो इस झांकी में सबसे आगे रहता है और अंत में दशानन के पीछे पीछे अधर्म पर धर्म की विजय सवरूप राम लक्ष्मण की सवारी भी निकाली जाती है। पूरे उत्तराखंड में इस दशहरा महोत्सव का काफी महत्व है, इन दिनों लोग दूर दूर से रावण परिवार का दहन देखने अल्मोड़ा आते हैं।इस साल प्रशासन द्वारा चौदह फ़ीट से ऊँचे पुतले बनाने की अनुमति नहीं है ,इसलिए कई सारे पुतले बैठी हुई मुद्रा में बने हुए हैं। महीने भर की कड़ी मेहनत ,लगन ,कुशल नेतृत्व एवं कलाकारी से लाखों लोगों का आकर्षण बने ये पुतले मिसाल है अल्मोड़ा नगरी के हर एक मोहल्ले के हस्तकलाकारों का जो दिन रात मेहनत कर के इस दशहरा महोत्सव को खास बनाते हैं।  देखिये इनकी कुछ झलकियाँ -
ताडिका 
अहिरावण
                  अहिरावण की साथी शर्मीली 
लवासुर 
वीरत 
प्रहस्थ 
त्रिसरा 
हो के घोड़े में सवार आया नौरंतक 

शेर पे सवार अक्षय कुमार 

कालकेतु 
सुबाहु 
मारीच के  हिरन और मनुष्य दोनों रूप
\
        यज्ञ करता हुआ मेघनाथ                                  
कंकासुर 
रावण 
निकुम्भ 
                                           
                                   इन राक्षसों के पीछे पीछे चलती है राम लक्ष्मण की सवारी                                                                                                                 इसी बीच पुतलों के साथ साथ कलाकार पारम्परिक वेशभूषा में छोलिया नृत्य का प्रदर्शन भी हो रहा था। छोलिया नृत्य को कुमाऊँ के नृत्य के रूप में जाना जाता है और नृत्य करने वाले पुरुषों को छोल्यार कहा जाता है। ये कलाकार सफ़ेद चूड़ीदार पैजामा ,सफ़ेद पगड़ी और लम्बा चोला पहन कर गेंदे की खाल से बने नगाड़े की थाप पर लम्बी लम्बी तलवारें ले कर थिरकते हैं। ये नृत्य वीर रस का प्रतीक है। 
छोलिया नृत्य 
स्टेडियम में दहन 
आतिशबाजी 
                               इस तरह से स्टेडियम में पुतलों के दहन के साथ इस दशहरा महोत्सव २०१५ का समापन हो गया। 

Monday 12 October 2015

देखिये कैसे मनाया जाता है सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में दुर्गा महोत्सव

           सांस्कृतिक नगरी के नाम से विख्यात अल्मोडा  देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में स्थित एक पहाड़ी शहर है ।अपने आसपास के अन्य प्रसिद्ध जगहों नैनीताल शिमला मसूरी की तरह से अंग्रेजों द्वारा नहीं वरन उससे भी पहले कत्यूरी शाशको के द्वारा बसाया गया है।ये शहर किस तरह बसा इस विषय में एक लोककथा प्रचलित है।करीब छ सौ साल पहले कुमाऊं का एक राजा शिकार करने को गया था ।चलते चलते एक घने जंगल में उसे एक खरगोश दिखा और अचानक वो चीते में परिवर्तित हो गया।राजा उसका पीछा करने को आगे बढ़ा और कुछ दूर जा कर के वो चीता गायब हो गया।राजा को कुछ समझ नहीं आया और उसमे वापस आ कर के सभा बुलाई।सभी विद्वानों ने मिलकर ये निष्कर्ष निकाला कि इस जगह पर एक शहर बसाया जाना चाहिये क्योंकि चीते मुख्यतः उस जगह से भागते हैं जहाँ पर बडी संख्या में मनुष्य बसने वाले हों।इस तरह से लगभग छ सौ साल पहले अल्मोड़ा शहर का निर्माण प्रारम्भ हुआ।इसके बाद सन् पंद्रह सौ सड़सठ में चन्द राजाओं ने अपनी राजधानी चम्पावत से हटा कर अल्मोडा कर ली थी।यहाँ पर आज भी दो पुरानी इमारते हैं जो पहले मल्ला महल और तल्ला महल के नाम से जाने जाते थे और अब वहाँ कलेक्ट्रेट और जिला अस्पताल चलते हैं।
           पर्यटको के लिए घोड़े की पीठ के आकार में बसे अल्मोड़ा आने के कई रास्ते हैं,यहाँ का नजदीकी रेलवे स्टेशन काठगोदाम है जो कि नई दिल्ली और लखनऊ और बरेली से भली भांति जुडी हुई है।काठगोदाम से आगे आने के लिए बस और शेयर्ड टेक्सी दिनभर चलती हैं।ये तो था अल्मोड़ा शहर का एक सूक्ष्म परिचय।जैसे ही हम अल्मोड़ा की सीमा में प्रवेश करते हैं,वैसे ही एक बड़े से प्रवेश द्वार में लिखा हुआ दिखता है सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा आपका स्वागत करती है।आखिर ऐसा क्या है यहाँ जिस कारण इसे सांस्कृतिक नगरी के नाम से जाना जाता है।इस नाम के पीछे कई कारण है,एक तो ये कि इसे मंदिरों के शहर के नाम से जाना जाता है,दूसरा ये कि यहाँ पर समय समय पर लगने वाले मेले,तीसरा ये कि यहाँ है त्यौहार मनाने का ढंग बहुत ही उत्कृष्ट और समृद्ध है। इस वर्ष हमे अक्टूबर के महीने में नवरात्रि के दिनों में अल्मोड़ा आने का सुअवसर प्राप्त हुआ है,इन दिनों यहाँ बहुत रौनक रहती है और मौसम भी कभी सुनहरी धूप वाला तो कभी कुहरे से भरा हुआ।एक आम सड़क से भी कुछ इस तरह के दृश्य इन दिनों आसानी से दिख जाते हैं -


सूर्यास्त का एक दृश्य 
                   आजतक आप सभी ने बंगाल में होने वाली दुर्गा पूजा के बारे में सुना होगा, आज आपको अल्मोड़ा में शारदीय नवरात्रियों के दौरान होने वाले दशहरा महोत्सव के बारे में बताते हैं। दशहरा महोत्सव के दौरान पूरे नौ दिन तक रामलीला मंचन,रावण परिवार के सदस्यों के पुतले निर्माण के साथ साथ दुर्गा पूजन भी होता है।प्रथम नवरात्री के दिन अल्मोड़ा में जगह जगह शक्ति के विभिन्न स्वरूपों की स्थापना की जाती है और वहां पंडाल लगा कर दिनभर भजन और रात में जगराते की व्यवस्था होती है।इन दिनों शहर की सुंदरता देखते ही बनती है।सन् उन्नीस सौ इक्यासी से यहाँ के गंगोला मोहल्ले में देवी की स्थापना से इस महोत्सव की शुरुआत हुई थी,जो इतने सैलून बात तक भी ना केवल  बतस्तूर जारी है वरन इसका स्वरूप बदल गया और प्रतिमा बनाने वाली जगहों में बढ़ोत्तरी हो गयी।मैने अपनी याददश्त में अल्मोड़ा में तीन जगह गंगोला मोहल्ला,नंदा देवी और राजपुर मोहल्ले में मूर्तियों को बनते और स्थापित होते देखा है। पिछले वर्ष से लक्ष्मेश्वर मोहल्ले में भी देवी स्थापित होने लगी है।इसके अतिरिक्त अब तो खत्याड़ी में भी मूर्ति स्थापना होने लगी है मूर्तियों के निर्माण से ले के भजन एवं पंडाल निर्माण तक यहाँ के स्थानीय लोगों का उत्साह देखते ही बनता है,और देवी के अलग अलग स्वरूपों के श्रृंगार को सजीव रूप देने के लिए ये लोग अपना सबकुछ दावं पर लगा देते है और दशहरे के दिन पुतलों के साथ साथ उनका दमन करती हुई सकती स्वरूपा माँ के विभिन्न रूप भी पूरे शहर की परिक्रमा करते हुए नगर वासियो को अपने दर्शन देती है।इसके बाद अगले वर्ष फिर आने के वादे के साथ  कोसी नदी में इनका विसर्जन किया जाता है।इस महोत्सव की भव्यता को देखते हुए लगता है अगर ये कहा जाये कि अल्मोडा को सांस्कृतिक नगरी का पर्याय बनाने में इस महोत्सव का भी भरपूर योगदान है तो कोई अतिश्योकति नहीं होगी।
       पहली नवरात्री के दिन हम अपने घर से नजदीक लक्ष्मेश्वर  में स्थापित देवी के दर्शन के लिए गए,वहां पर सजे पंडाल में दिन भर महिलाएं भजन करने वाली थी और रात को लड़के लोग।देखिये यहाँ पर स्थापित देवी माँ का स्वरूप -
       
देवी माँ लक्ष्मेश्वर 
                     यहाँ पर साम्प्रदायिक सदभाव का बहुत बड़ा उदहारण देखने को मिला जब माँ की धुन में मग्न मतवाले अल्मोड़ा नगर के उभरते हुए कलाकार नाजिम की लय पर झूम रहे थे। 
भजन गाते नाजिम 
भक्ति में मग्न भक्त 

              इतनी देर में हमारा माँ से आज्ञा लेने का समय भी हो गया था।रात के समय के लिए यहाँ  हर जगह बिजली  की मालाओं की व्यवस्था की गयी थी,पर दिन के समय दर्शन के लिए जाने की वजह से रात की जगमगाहट का कोई फ़ोटो नहीं हो पाया।वापस आते समय हम लिंक रोड से नीचे उतर गए और यहाँ के एक पुराने स्कूल के फील्ड चढ़कर वापस आये।यहाँ पर रास्ते में एक आकर्षक एवं  पुरानी ईमारत के दर्शन हुए जो कुछ ऐसी दिखती थी -

         नवरात्रि के दूसरे दिन यानिकि आज हम बाजार की तरफ निकले,आज का हमारा लक्ष्य था नंदा देवी बाजार एवं मल्ली बाजार में स्थापित देवी माँ के स्वरूपों के दर्शन करना।अब हम अल्मोड़ा की खासीयत पाटाल बाजार होते हुए लाला बाजार,नंदा देवी पहुंचे।यहाँ पर शेर पर सवार देवी माँ लाल और हरे रंग का लहंगा चुनरी ओढ़ कर एक गुफानुमा जगह पर विराजमान थी।  
देवी माँ नंदा देवी 
               ऐसा माना जाता है कि मातारानी  को शेर की सवारी बहुत भाती है,देखिये कितना जीवन्त है देवी माँ का वाहन-
मईया शेर की सवारी प्यारी लगती, द्वारे पे ज्योतिर्माला जगती। 
                माता के दर्शन कर के बाहर निकल ही रहे थे तो एक बडे से बैनर में लिखा दिखा लंकाधिपति रावण दरबार लाला बाजार में  आपका  स्वागत है,क्योंकि ये इलाका इन दिनों रावण की नगरी माना जाता है। यहाँ पर लंकेश का पुतला जो बनता है,देखिये स्वागत नोट -

                जैसे ही यहाँ से बाहर निकले के आगे बढ़ ही रहे थे और लाला बाजार भी क्रॉस नहीं कर पाये थे तो देखा बिना अँधेरा हुए ही दुकानों में लगी लाइट जगमगाने लगी है।


      
        अब हम लाला बाजार से  मल्ली  बाजार की तरफ बढे।यहाँ पर माता रानी पीले भूरे रंग के शेर पर नीले रंग की साडी पहन कर विराजमान थी।इन दो दिनों में देवी माँ के बड़े ही भव्य रूपों के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हो गया था।अब तक शाम का समय भी हो गया था और बाजार बिजली की मालाओं से जगमगाने लगा।देखिये एक झलक-

माँ मल्ली बाजार 
मल्ली बाजार 
              यहाँ से घर वापस जाते समय एक बार फिर लाला बाजार से हो के जाने की सोची तो लाला बाजार को भी चमक दमक से दमकता हुआ ही पाया और एक बार फिर माता के दर्शन कर के घर को चल पड़े।
सजी धजी लाला बाजार
              पूरी नवरात्रियों भर अल्मोड़ा के बाजार इसी तरह चमक दमक और भक्तिपूर्ण वातावरण से सुसज्जित रहते हैं और फिर दशहरे के दिन पुतलों के साथ साथ पूरे शहर में देवी माँ के दर्शन कराने के बाद उनसे अगले वर्ष फिर आने का वादा लेकर पूरे सम्मान के साथ कोसी नदी में विसर्जन किया जाता है ।कुछ ऐसे मनाया जाता है अल्मोड़ा में दुर्गा महोस्त्सव ।इसके साथ साथ पूरे नौ दिन तक रामायण की पूरी कथा का रामलीला के रूप में मंचन होता है और दशहरे के दिन दहन के लिए रावण परिवार के सभी सदस्यों के पुतले बनाये जाते है।कैसा लगा आपलोगों को सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा का दुर्गा पूजन जरूर बताइयेगा और सभी फोटो मोबाइल से होने के कारण उतनी अच्छी नहीं आ पायी जिसके लिए माफ़ी चाहूंगी। 
अल्मोड़ा दशहरा महोत्सव -
देखिये कैसे मनाया जाता है सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में दुर्गा महोत्सव
 अल्मोड़ा की सांस्कृतिक विरासत है रामलीला मंचन और रावण परिवार के पुतलों का दहन