Saturday 24 October 2015

 अल्मोड़ा की सांस्कृतिक विरासत है रामलीला मंचन और रावण परिवार के पुतलों का दहन

              गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामायण से तो सभी लोग परिचित होंगे,उसके दो सौ वर्ष बाद अल्मोड़ा के सम्मानीय विद्वान पंडित देवीदत्त जोशी जी ने रामलीला नाटक का सृजन किया,जिसमे उन्होंने कई सारे गीतों को मिलाकर पूरी कथा बनाई।विश्व की इस सबसे लंबी नर्त्य नाटिका का नाम यूनेस्को की विश्व सांस्कृतिक सम्पदा सूची में भी विद्यमान है।ऐसा माना जाता है सन अट्ठारह  सौ साठ में अल्मोड़ा के बद्रेश्वर मंदिर में पहली रामलीला का आयोजन किया गया था।ये नृत्य नाटिका बहुत जल्दी ही कुमाऊं के साथ साथ गढ़वाल मंडल में भी प्रचारित हो गया,और धीरे धीरे उत्तराखंड के बाहर भी इसने अपना स्थान बना लिया।इस नृत्य नाटिका का मुख्य आकर्षण ये है कि इसमें सभी कलाकार अभिनय के साथ साथ अपने संवादों को याद कर के स्वयं गाते थे।जैसे जैसे ये नाटिका उत्तराखंड से बाहर गयी वैसे वैसे इसका रूप रंग भी परिवर्तित होने लगा और अकेले अल्मोड़ा में भी कई जगह इसका मंचन होने लगा।मेरी याददाश्त में हुक्का क्लब,नंदा देवी,धरनौला,कर्णाटक खोला एवं पांडे खोला में रामलीला मंचन होता था।पिछले कुछ वर्षों से पांडे खोल में रामलीला मंचन बंद हो गया।अक्सर हम लोग धारा नौला की या फिर नंदा देवी में होने वाले रामलीला मंचन को देखने जाया करते थे।एक दिन शाम को बाजार से घर वापस आ रहे थे तो नंदा देवी में सजे मंच को देखे बिना रहा नहीं गया और बचपन में देखी रामलीला और पुतलों का पूरा फ्लॅशबैक आँखों के सामने आ गया और इस वर्ष कई और मोहल्ले भी पुतले बनाने लगे हैं। अब ये संख्या पहले से बढ़कर चौबीस हो गए हैं। ये सुन कर के मन अति उत्साह से भर गया था। एक साथ खड़े ये रावण परिवार के सदस्य कैसे अपने कलाकरों की कला का प्रदर्शन कर रहे थे और कैसे लोगों का हुजूम इन्हे देखने के लिए उमड़ा था-     
पंक्तिबद्ध पुतले और उन्हें देखने के उमड़ी भीड़ 
            आज इस पोस्ट को  लिखते समय ऐसा लग रहा है कि ये यात्रा वृत्तांत न होकर एक संस्मरण सा बन रहा है पर यादों को आने से रोकना असम्भव हो जाता है।उन दिनो हमारे लिए दशहरे का मतलब होता था पूरी मस्ती का पैकेज ,एक तो दस दिन तक स्कूल से छुट्टी और घर के बड़े लोग एक एक दिन नंबर लगा के सभी दुर्गा मंडलों में और बाजार के मंदिरों में जाया करते थे इससे अपनी भी बाजार घूमने की चांदी हो जाती थी।अल्मोड़ा की एक खास बात और भी है वो ये कि यहाँ आपको हर कदम पर मंदिर देखने को मिल जायेंगे।इसलिए हमलोगों का सही रहता था दिन में बाजार रात में रामलीला उस समय और चाहिए ही क्या होता था।इस बार कई सालों बाद इन दिनों अल्मोड़ा आना हुआ तो पता लगा आज के बच्चों में वो उत्साह नहीं रह गया।शायद उनके मनोरंजन के ढंग ही बदल गए हों।मुझे तो आज भी कुछ कुछ कलाकारों के संवाद और गाने थोडा थोडा याद है।पूरी रामलीला में ताडिका का अभिनय ,सीता स्वयंमवर,सीता हरण ,सूर्पनखा नासिका छेदन,अंगद रावण संवाद ,लक्ष्मण शक्ति जैसे प्रसंग बहुत रोचक बन पड़ते थे। एक बात और याद आ गई धनष यज्ञ में रामजी का धनुष तोड़ने में उतना आनंद नहीं आता था जितना कि एक गुदड़ी राजा के यह कहते हुए कि "तोड़ू पुराना धनुष आज शिव शंकर वाला"और एक एक कर अपने पहने हुए बहुत सारे कपड़ों को खोल खोल कर इधर उधर फेंकना। कहने में तो अब अजीब सा लगता है परन्तु बचपन में राम के पक्ष के लोगों की बजाय रावण के पक्ष के किरदार अधिक अच्छे लगते थे जैसे ताड़िका जो कि ये गाना गाती थी "मैं तो ताड़िका हूँ तड़ तड़ कर ताड़ करती हूँ", खर-दूषण का अभिमान से भरा गाना "सुर नर नाग असुर मुनि जेते" और उसके बाद रामचन्द्र जी को पहचानने के बाद का इस तरह का अभिनय "हैरान हूँ में देख के इस छबि का क्या करूं। "छः महीने तक सोने वाले विशालकाय कुम्भकर्ण को कैसे भूल सकते हैं -"राम को खाऊँ, लखन को खाऊं,सीता को कच्चा चबाऊं" या फिर रावण का अपनी सभा में यह आदेश देना "मंत्री नाच गाने का प्रबन्ध करो"आदि। नौ दिन तक राम जन्म से रावण वध तक की कथा को बड़े रोचक ढंग से मंचित होते देखने के बाद दशहरे के दिन कड़ी मेहनत से बनाये रावण परिवार के पुतलों को पूरे शहर में घूमाने के बाद स्टेडियम में दहन करा जाता है। जब हम बचपन में पुतले देखने जाते थे तो शायद दस से बारह ही बनते होंगे। तब से आजतक बढ़ते बढ़ते रावण परिवार के पुतलों की संख्या चौबीस पहुँच गयी है। जो राक्षस जिस क्रम में मारा जाता है वो इस झांकी में सबसे आगे रहता है और अंत में दशानन के पीछे पीछे अधर्म पर धर्म की विजय सवरूप राम लक्ष्मण की सवारी भी निकाली जाती है। पूरे उत्तराखंड में इस दशहरा महोत्सव का काफी महत्व है, इन दिनों लोग दूर दूर से रावण परिवार का दहन देखने अल्मोड़ा आते हैं।इस साल प्रशासन द्वारा चौदह फ़ीट से ऊँचे पुतले बनाने की अनुमति नहीं है ,इसलिए कई सारे पुतले बैठी हुई मुद्रा में बने हुए हैं। महीने भर की कड़ी मेहनत ,लगन ,कुशल नेतृत्व एवं कलाकारी से लाखों लोगों का आकर्षण बने ये पुतले मिसाल है अल्मोड़ा नगरी के हर एक मोहल्ले के हस्तकलाकारों का जो दिन रात मेहनत कर के इस दशहरा महोत्सव को खास बनाते हैं।  देखिये इनकी कुछ झलकियाँ -
ताडिका 
अहिरावण
                  अहिरावण की साथी शर्मीली 
लवासुर 
वीरत 
प्रहस्थ 
त्रिसरा 
हो के घोड़े में सवार आया नौरंतक 

शेर पे सवार अक्षय कुमार 

कालकेतु 
सुबाहु 
मारीच के  हिरन और मनुष्य दोनों रूप
\
        यज्ञ करता हुआ मेघनाथ                                  
कंकासुर 
रावण 
निकुम्भ 
                                           
                                   इन राक्षसों के पीछे पीछे चलती है राम लक्ष्मण की सवारी                                                                                                                 इसी बीच पुतलों के साथ साथ कलाकार पारम्परिक वेशभूषा में छोलिया नृत्य का प्रदर्शन भी हो रहा था। छोलिया नृत्य को कुमाऊँ के नृत्य के रूप में जाना जाता है और नृत्य करने वाले पुरुषों को छोल्यार कहा जाता है। ये कलाकार सफ़ेद चूड़ीदार पैजामा ,सफ़ेद पगड़ी और लम्बा चोला पहन कर गेंदे की खाल से बने नगाड़े की थाप पर लम्बी लम्बी तलवारें ले कर थिरकते हैं। ये नृत्य वीर रस का प्रतीक है। 
छोलिया नृत्य 
स्टेडियम में दहन 
आतिशबाजी 
                               इस तरह से स्टेडियम में पुतलों के दहन के साथ इस दशहरा महोत्सव २०१५ का समापन हो गया। 

10 comments:

  1. हर्षिता जी अलमोडा के दशहरे की सुन्दर झांकियो से आपने रूबरू कराया जिसके लिए आभार।

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  2. अल्‍मोड़ा की सांस्‍कृतिक की झलक देख कर ही मन प्रफल्लित हो गया। अच्‍छी पोस्‍ट के लिए धन्‍यवाद। मेरे ब्‍लाग पर भी आपका स्‍वागत है।

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  3. बहुत सुन्दर वृतांत हर्षिता जी ! अल्मोड़ा जैसे छोटे शहर में इतना कुछ भरा पड़ा है देखने को ! आपने शुरुआत से ही पोस्ट को दमदार शब्द और शैली प्रदान कर दी है जिससे आगे पढ़ना और भी रुचिकर लगता है ! समय के साथ परिवर्तन होता ही है और होना भी चाहिए ! पुतले बहुत शानदार और सजीव लग रहे हैं ! दूसरी नंबर की पिक्चर का पुतला बहुत ही सुन्दर है लेकिन आपने उसका नाम नही लिखा ? छोलिया नृत्य पहली बार सुना है ! कभी इस विषय में विस्तृत रूप से लिखियेगा !!

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  4. बेहतरीन पोस्ट हर्षिता जी... चित्र भी एक से बढकर एक .... | अल्मोड़ा की संस्कृतिक त्यौहार से परिचय कराने के लिए धन्यवाद

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    1. ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद

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  5. अल्मोड़ा की रामलीला का अपना ही रंग है। अब तक सिर्फ़ सुना ही है। इस पोस्ट को पढ़ कर लगा कि देख रहा हूँ। बेहद रोचक विवरण।इस रामलीला के 155 वर्ष पूरे हो गए। इतने वर्षों को विरासत सम्भाले रखना आसान नहीं।

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  6. नाथ शम्भू धनु भांजनी हारा... होइ एक कोई दास तुम्हारा। याद दिल दी गांव की आपने।

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  7. हर्षिता जी , अभी तक अल्मोड़ा की रामलीला सुनी भर थी । आज आपने उससे रु-ब-रु करा दिया ।बढ़िया चित्रमय प्रस्तुति ।

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  8. हर्षिता जी , अभी तक अल्मोड़ा की रामलीला सुनी भर थी । आज आपने उससे रु-ब-रु करा दिया ।बढ़िया चित्रमय प्रस्तुति ।

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