Saturday 24 October 2015

 अल्मोड़ा की सांस्कृतिक विरासत है रामलीला मंचन और रावण परिवार के पुतलों का दहन

              गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामायण से तो सभी लोग परिचित होंगे,उसके दो सौ वर्ष बाद अल्मोड़ा के सम्मानीय विद्वान पंडित देवीदत्त जोशी जी ने रामलीला नाटक का सृजन किया,जिसमे उन्होंने कई सारे गीतों को मिलाकर पूरी कथा बनाई।विश्व की इस सबसे लंबी नर्त्य नाटिका का नाम यूनेस्को की विश्व सांस्कृतिक सम्पदा सूची में भी विद्यमान है।ऐसा माना जाता है सन अट्ठारह  सौ साठ में अल्मोड़ा के बद्रेश्वर मंदिर में पहली रामलीला का आयोजन किया गया था।ये नृत्य नाटिका बहुत जल्दी ही कुमाऊं के साथ साथ गढ़वाल मंडल में भी प्रचारित हो गया,और धीरे धीरे उत्तराखंड के बाहर भी इसने अपना स्थान बना लिया।इस नृत्य नाटिका का मुख्य आकर्षण ये है कि इसमें सभी कलाकार अभिनय के साथ साथ अपने संवादों को याद कर के स्वयं गाते थे।जैसे जैसे ये नाटिका उत्तराखंड से बाहर गयी वैसे वैसे इसका रूप रंग भी परिवर्तित होने लगा और अकेले अल्मोड़ा में भी कई जगह इसका मंचन होने लगा।मेरी याददाश्त में हुक्का क्लब,नंदा देवी,धरनौला,कर्णाटक खोला एवं पांडे खोला में रामलीला मंचन होता था।पिछले कुछ वर्षों से पांडे खोल में रामलीला मंचन बंद हो गया।अक्सर हम लोग धारा नौला की या फिर नंदा देवी में होने वाले रामलीला मंचन को देखने जाया करते थे।एक दिन शाम को बाजार से घर वापस आ रहे थे तो नंदा देवी में सजे मंच को देखे बिना रहा नहीं गया और बचपन में देखी रामलीला और पुतलों का पूरा फ्लॅशबैक आँखों के सामने आ गया और इस वर्ष कई और मोहल्ले भी पुतले बनाने लगे हैं। अब ये संख्या पहले से बढ़कर चौबीस हो गए हैं। ये सुन कर के मन अति उत्साह से भर गया था। एक साथ खड़े ये रावण परिवार के सदस्य कैसे अपने कलाकरों की कला का प्रदर्शन कर रहे थे और कैसे लोगों का हुजूम इन्हे देखने के लिए उमड़ा था-     
पंक्तिबद्ध पुतले और उन्हें देखने के उमड़ी भीड़ 
            आज इस पोस्ट को  लिखते समय ऐसा लग रहा है कि ये यात्रा वृत्तांत न होकर एक संस्मरण सा बन रहा है पर यादों को आने से रोकना असम्भव हो जाता है।उन दिनो हमारे लिए दशहरे का मतलब होता था पूरी मस्ती का पैकेज ,एक तो दस दिन तक स्कूल से छुट्टी और घर के बड़े लोग एक एक दिन नंबर लगा के सभी दुर्गा मंडलों में और बाजार के मंदिरों में जाया करते थे इससे अपनी भी बाजार घूमने की चांदी हो जाती थी।अल्मोड़ा की एक खास बात और भी है वो ये कि यहाँ आपको हर कदम पर मंदिर देखने को मिल जायेंगे।इसलिए हमलोगों का सही रहता था दिन में बाजार रात में रामलीला उस समय और चाहिए ही क्या होता था।इस बार कई सालों बाद इन दिनों अल्मोड़ा आना हुआ तो पता लगा आज के बच्चों में वो उत्साह नहीं रह गया।शायद उनके मनोरंजन के ढंग ही बदल गए हों।मुझे तो आज भी कुछ कुछ कलाकारों के संवाद और गाने थोडा थोडा याद है।पूरी रामलीला में ताडिका का अभिनय ,सीता स्वयंमवर,सीता हरण ,सूर्पनखा नासिका छेदन,अंगद रावण संवाद ,लक्ष्मण शक्ति जैसे प्रसंग बहुत रोचक बन पड़ते थे। एक बात और याद आ गई धनष यज्ञ में रामजी का धनुष तोड़ने में उतना आनंद नहीं आता था जितना कि एक गुदड़ी राजा के यह कहते हुए कि "तोड़ू पुराना धनुष आज शिव शंकर वाला"और एक एक कर अपने पहने हुए बहुत सारे कपड़ों को खोल खोल कर इधर उधर फेंकना। कहने में तो अब अजीब सा लगता है परन्तु बचपन में राम के पक्ष के लोगों की बजाय रावण के पक्ष के किरदार अधिक अच्छे लगते थे जैसे ताड़िका जो कि ये गाना गाती थी "मैं तो ताड़िका हूँ तड़ तड़ कर ताड़ करती हूँ", खर-दूषण का अभिमान से भरा गाना "सुर नर नाग असुर मुनि जेते" और उसके बाद रामचन्द्र जी को पहचानने के बाद का इस तरह का अभिनय "हैरान हूँ में देख के इस छबि का क्या करूं। "छः महीने तक सोने वाले विशालकाय कुम्भकर्ण को कैसे भूल सकते हैं -"राम को खाऊँ, लखन को खाऊं,सीता को कच्चा चबाऊं" या फिर रावण का अपनी सभा में यह आदेश देना "मंत्री नाच गाने का प्रबन्ध करो"आदि। नौ दिन तक राम जन्म से रावण वध तक की कथा को बड़े रोचक ढंग से मंचित होते देखने के बाद दशहरे के दिन कड़ी मेहनत से बनाये रावण परिवार के पुतलों को पूरे शहर में घूमाने के बाद स्टेडियम में दहन करा जाता है। जब हम बचपन में पुतले देखने जाते थे तो शायद दस से बारह ही बनते होंगे। तब से आजतक बढ़ते बढ़ते रावण परिवार के पुतलों की संख्या चौबीस पहुँच गयी है। जो राक्षस जिस क्रम में मारा जाता है वो इस झांकी में सबसे आगे रहता है और अंत में दशानन के पीछे पीछे अधर्म पर धर्म की विजय सवरूप राम लक्ष्मण की सवारी भी निकाली जाती है। पूरे उत्तराखंड में इस दशहरा महोत्सव का काफी महत्व है, इन दिनों लोग दूर दूर से रावण परिवार का दहन देखने अल्मोड़ा आते हैं।इस साल प्रशासन द्वारा चौदह फ़ीट से ऊँचे पुतले बनाने की अनुमति नहीं है ,इसलिए कई सारे पुतले बैठी हुई मुद्रा में बने हुए हैं। महीने भर की कड़ी मेहनत ,लगन ,कुशल नेतृत्व एवं कलाकारी से लाखों लोगों का आकर्षण बने ये पुतले मिसाल है अल्मोड़ा नगरी के हर एक मोहल्ले के हस्तकलाकारों का जो दिन रात मेहनत कर के इस दशहरा महोत्सव को खास बनाते हैं।  देखिये इनकी कुछ झलकियाँ -
ताडिका 
अहिरावण
                  अहिरावण की साथी शर्मीली 
लवासुर 
वीरत 
प्रहस्थ 
त्रिसरा 
हो के घोड़े में सवार आया नौरंतक 

शेर पे सवार अक्षय कुमार 

कालकेतु 
सुबाहु 
मारीच के  हिरन और मनुष्य दोनों रूप
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        यज्ञ करता हुआ मेघनाथ                                  
कंकासुर 
रावण 
निकुम्भ 
                                           
                                   इन राक्षसों के पीछे पीछे चलती है राम लक्ष्मण की सवारी                                                                                                                 इसी बीच पुतलों के साथ साथ कलाकार पारम्परिक वेशभूषा में छोलिया नृत्य का प्रदर्शन भी हो रहा था। छोलिया नृत्य को कुमाऊँ के नृत्य के रूप में जाना जाता है और नृत्य करने वाले पुरुषों को छोल्यार कहा जाता है। ये कलाकार सफ़ेद चूड़ीदार पैजामा ,सफ़ेद पगड़ी और लम्बा चोला पहन कर गेंदे की खाल से बने नगाड़े की थाप पर लम्बी लम्बी तलवारें ले कर थिरकते हैं। ये नृत्य वीर रस का प्रतीक है। 
छोलिया नृत्य 
स्टेडियम में दहन 
आतिशबाजी 
                               इस तरह से स्टेडियम में पुतलों के दहन के साथ इस दशहरा महोत्सव २०१५ का समापन हो गया। 

Monday 12 October 2015

देखिये कैसे मनाया जाता है सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में दुर्गा महोत्सव

           सांस्कृतिक नगरी के नाम से विख्यात अल्मोडा  देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में स्थित एक पहाड़ी शहर है ।अपने आसपास के अन्य प्रसिद्ध जगहों नैनीताल शिमला मसूरी की तरह से अंग्रेजों द्वारा नहीं वरन उससे भी पहले कत्यूरी शाशको के द्वारा बसाया गया है।ये शहर किस तरह बसा इस विषय में एक लोककथा प्रचलित है।करीब छ सौ साल पहले कुमाऊं का एक राजा शिकार करने को गया था ।चलते चलते एक घने जंगल में उसे एक खरगोश दिखा और अचानक वो चीते में परिवर्तित हो गया।राजा उसका पीछा करने को आगे बढ़ा और कुछ दूर जा कर के वो चीता गायब हो गया।राजा को कुछ समझ नहीं आया और उसमे वापस आ कर के सभा बुलाई।सभी विद्वानों ने मिलकर ये निष्कर्ष निकाला कि इस जगह पर एक शहर बसाया जाना चाहिये क्योंकि चीते मुख्यतः उस जगह से भागते हैं जहाँ पर बडी संख्या में मनुष्य बसने वाले हों।इस तरह से लगभग छ सौ साल पहले अल्मोड़ा शहर का निर्माण प्रारम्भ हुआ।इसके बाद सन् पंद्रह सौ सड़सठ में चन्द राजाओं ने अपनी राजधानी चम्पावत से हटा कर अल्मोडा कर ली थी।यहाँ पर आज भी दो पुरानी इमारते हैं जो पहले मल्ला महल और तल्ला महल के नाम से जाने जाते थे और अब वहाँ कलेक्ट्रेट और जिला अस्पताल चलते हैं।
           पर्यटको के लिए घोड़े की पीठ के आकार में बसे अल्मोड़ा आने के कई रास्ते हैं,यहाँ का नजदीकी रेलवे स्टेशन काठगोदाम है जो कि नई दिल्ली और लखनऊ और बरेली से भली भांति जुडी हुई है।काठगोदाम से आगे आने के लिए बस और शेयर्ड टेक्सी दिनभर चलती हैं।ये तो था अल्मोड़ा शहर का एक सूक्ष्म परिचय।जैसे ही हम अल्मोड़ा की सीमा में प्रवेश करते हैं,वैसे ही एक बड़े से प्रवेश द्वार में लिखा हुआ दिखता है सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा आपका स्वागत करती है।आखिर ऐसा क्या है यहाँ जिस कारण इसे सांस्कृतिक नगरी के नाम से जाना जाता है।इस नाम के पीछे कई कारण है,एक तो ये कि इसे मंदिरों के शहर के नाम से जाना जाता है,दूसरा ये कि यहाँ पर समय समय पर लगने वाले मेले,तीसरा ये कि यहाँ है त्यौहार मनाने का ढंग बहुत ही उत्कृष्ट और समृद्ध है। इस वर्ष हमे अक्टूबर के महीने में नवरात्रि के दिनों में अल्मोड़ा आने का सुअवसर प्राप्त हुआ है,इन दिनों यहाँ बहुत रौनक रहती है और मौसम भी कभी सुनहरी धूप वाला तो कभी कुहरे से भरा हुआ।एक आम सड़क से भी कुछ इस तरह के दृश्य इन दिनों आसानी से दिख जाते हैं -


सूर्यास्त का एक दृश्य 
                   आजतक आप सभी ने बंगाल में होने वाली दुर्गा पूजा के बारे में सुना होगा, आज आपको अल्मोड़ा में शारदीय नवरात्रियों के दौरान होने वाले दशहरा महोत्सव के बारे में बताते हैं। दशहरा महोत्सव के दौरान पूरे नौ दिन तक रामलीला मंचन,रावण परिवार के सदस्यों के पुतले निर्माण के साथ साथ दुर्गा पूजन भी होता है।प्रथम नवरात्री के दिन अल्मोड़ा में जगह जगह शक्ति के विभिन्न स्वरूपों की स्थापना की जाती है और वहां पंडाल लगा कर दिनभर भजन और रात में जगराते की व्यवस्था होती है।इन दिनों शहर की सुंदरता देखते ही बनती है।सन् उन्नीस सौ इक्यासी से यहाँ के गंगोला मोहल्ले में देवी की स्थापना से इस महोत्सव की शुरुआत हुई थी,जो इतने सैलून बात तक भी ना केवल  बतस्तूर जारी है वरन इसका स्वरूप बदल गया और प्रतिमा बनाने वाली जगहों में बढ़ोत्तरी हो गयी।मैने अपनी याददश्त में अल्मोड़ा में तीन जगह गंगोला मोहल्ला,नंदा देवी और राजपुर मोहल्ले में मूर्तियों को बनते और स्थापित होते देखा है। पिछले वर्ष से लक्ष्मेश्वर मोहल्ले में भी देवी स्थापित होने लगी है।इसके अतिरिक्त अब तो खत्याड़ी में भी मूर्ति स्थापना होने लगी है मूर्तियों के निर्माण से ले के भजन एवं पंडाल निर्माण तक यहाँ के स्थानीय लोगों का उत्साह देखते ही बनता है,और देवी के अलग अलग स्वरूपों के श्रृंगार को सजीव रूप देने के लिए ये लोग अपना सबकुछ दावं पर लगा देते है और दशहरे के दिन पुतलों के साथ साथ उनका दमन करती हुई सकती स्वरूपा माँ के विभिन्न रूप भी पूरे शहर की परिक्रमा करते हुए नगर वासियो को अपने दर्शन देती है।इसके बाद अगले वर्ष फिर आने के वादे के साथ  कोसी नदी में इनका विसर्जन किया जाता है।इस महोत्सव की भव्यता को देखते हुए लगता है अगर ये कहा जाये कि अल्मोडा को सांस्कृतिक नगरी का पर्याय बनाने में इस महोत्सव का भी भरपूर योगदान है तो कोई अतिश्योकति नहीं होगी।
       पहली नवरात्री के दिन हम अपने घर से नजदीक लक्ष्मेश्वर  में स्थापित देवी के दर्शन के लिए गए,वहां पर सजे पंडाल में दिन भर महिलाएं भजन करने वाली थी और रात को लड़के लोग।देखिये यहाँ पर स्थापित देवी माँ का स्वरूप -
       
देवी माँ लक्ष्मेश्वर 
                     यहाँ पर साम्प्रदायिक सदभाव का बहुत बड़ा उदहारण देखने को मिला जब माँ की धुन में मग्न मतवाले अल्मोड़ा नगर के उभरते हुए कलाकार नाजिम की लय पर झूम रहे थे। 
भजन गाते नाजिम 
भक्ति में मग्न भक्त 

              इतनी देर में हमारा माँ से आज्ञा लेने का समय भी हो गया था।रात के समय के लिए यहाँ  हर जगह बिजली  की मालाओं की व्यवस्था की गयी थी,पर दिन के समय दर्शन के लिए जाने की वजह से रात की जगमगाहट का कोई फ़ोटो नहीं हो पाया।वापस आते समय हम लिंक रोड से नीचे उतर गए और यहाँ के एक पुराने स्कूल के फील्ड चढ़कर वापस आये।यहाँ पर रास्ते में एक आकर्षक एवं  पुरानी ईमारत के दर्शन हुए जो कुछ ऐसी दिखती थी -

         नवरात्रि के दूसरे दिन यानिकि आज हम बाजार की तरफ निकले,आज का हमारा लक्ष्य था नंदा देवी बाजार एवं मल्ली बाजार में स्थापित देवी माँ के स्वरूपों के दर्शन करना।अब हम अल्मोड़ा की खासीयत पाटाल बाजार होते हुए लाला बाजार,नंदा देवी पहुंचे।यहाँ पर शेर पर सवार देवी माँ लाल और हरे रंग का लहंगा चुनरी ओढ़ कर एक गुफानुमा जगह पर विराजमान थी।  
देवी माँ नंदा देवी 
               ऐसा माना जाता है कि मातारानी  को शेर की सवारी बहुत भाती है,देखिये कितना जीवन्त है देवी माँ का वाहन-
मईया शेर की सवारी प्यारी लगती, द्वारे पे ज्योतिर्माला जगती। 
                माता के दर्शन कर के बाहर निकल ही रहे थे तो एक बडे से बैनर में लिखा दिखा लंकाधिपति रावण दरबार लाला बाजार में  आपका  स्वागत है,क्योंकि ये इलाका इन दिनों रावण की नगरी माना जाता है। यहाँ पर लंकेश का पुतला जो बनता है,देखिये स्वागत नोट -

                जैसे ही यहाँ से बाहर निकले के आगे बढ़ ही रहे थे और लाला बाजार भी क्रॉस नहीं कर पाये थे तो देखा बिना अँधेरा हुए ही दुकानों में लगी लाइट जगमगाने लगी है।


      
        अब हम लाला बाजार से  मल्ली  बाजार की तरफ बढे।यहाँ पर माता रानी पीले भूरे रंग के शेर पर नीले रंग की साडी पहन कर विराजमान थी।इन दो दिनों में देवी माँ के बड़े ही भव्य रूपों के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हो गया था।अब तक शाम का समय भी हो गया था और बाजार बिजली की मालाओं से जगमगाने लगा।देखिये एक झलक-

माँ मल्ली बाजार 
मल्ली बाजार 
              यहाँ से घर वापस जाते समय एक बार फिर लाला बाजार से हो के जाने की सोची तो लाला बाजार को भी चमक दमक से दमकता हुआ ही पाया और एक बार फिर माता के दर्शन कर के घर को चल पड़े।
सजी धजी लाला बाजार
              पूरी नवरात्रियों भर अल्मोड़ा के बाजार इसी तरह चमक दमक और भक्तिपूर्ण वातावरण से सुसज्जित रहते हैं और फिर दशहरे के दिन पुतलों के साथ साथ पूरे शहर में देवी माँ के दर्शन कराने के बाद उनसे अगले वर्ष फिर आने का वादा लेकर पूरे सम्मान के साथ कोसी नदी में विसर्जन किया जाता है ।कुछ ऐसे मनाया जाता है अल्मोड़ा में दुर्गा महोस्त्सव ।इसके साथ साथ पूरे नौ दिन तक रामायण की पूरी कथा का रामलीला के रूप में मंचन होता है और दशहरे के दिन दहन के लिए रावण परिवार के सभी सदस्यों के पुतले बनाये जाते है।कैसा लगा आपलोगों को सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा का दुर्गा पूजन जरूर बताइयेगा और सभी फोटो मोबाइल से होने के कारण उतनी अच्छी नहीं आ पायी जिसके लिए माफ़ी चाहूंगी। 
अल्मोड़ा दशहरा महोत्सव -
देखिये कैसे मनाया जाता है सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में दुर्गा महोत्सव
 अल्मोड़ा की सांस्कृतिक विरासत है रामलीला मंचन और रावण परिवार के पुतलों का दहन

Tuesday 6 October 2015

Trek to Elephanta Beach,Havelock

                    हैवलॉक में हमारी आखिरी मंजिल एलीफेंटा बीच था,जो कि काफी रिमोट जगह पर स्थित था। यहाँ पहुँचने के दो रास्ते थे पहला स्पीड बोट द्वारा जिसमे करीबन दस मिनट लगते हैं और दूसरा रास्ता था जिसमें लगभग आधे घंटे तक जंगल में ट्रैकिंग करनी थी।अब तक हम पानी स्पीड बोट सबकुछ काफी बार कर चुके थे और टाइम भी हमारे पास पर्याप्त ही था क्योंकि प्लान के मुताबिक आज के दिन में हमें सिर्फ यही देखना था, हालांकि कयाकिंग का मन था पर तनाज जी से संपर्क नहीं हो पाने के कारण इस प्लान का गुड गोबर हो गया। आज के दिन का प्रारम्भ होटल के ब्रेकफास्ट में मिले आलू के पराठों के साथ हुआ,ऐसे पराठे खिलाये की खाना वाला खता ही रह जाये और साथ के साथ बिल भी बढाता जाये।आज शाम हमें हैवलॉक को अलविदा भी कहना था मतलब कहीं बाहर निकलने से पहले चेक आउट की औपचारिकता भी पूरी  करके जाना था क्यूंकि वापस आने तक तो चेक आउट का समय निकल ही जाता। जल्दी जल्दी सामान समेट कर दोनों कमरे खाली किये और चाबी के साथ साथ अपना सामान भी होटल के मालिक को पकड़ा दिया ये बोल कर कि वापस आते समय ले जायेंगे। अब हम शांत दिमाग से बाहर बैठकर निरंजन जी का इन्तजार कर रहे थे जो हमें उस जगह तक छोड़ने वाले थे जहाँ से एलिफेंटा बीच का ट्रैक शुरू होता है।इस जगह पर एक झोपड़ी बानी हुयी है जिसपर लिखा है ट्रैक टू  एलिफेंटा बीच और एक गेट भी बना हुआ है जिसमे धुंधले से शब्दों में लिखा है वेलकम टू  एलिफेंटा बीच-

मुख्य द्वार एलिफेंटा बीच जाने के रास्ते का 
                     यहाँ पर कई सारे एजेंट टाइप के लोग बैठे रहते हैं जो कि बोलते हैं हम गाइड का काम करेंगे रास्ते पर चलने के लिए और बीच पर जा के स्नोर्कलिंग भी करा देंगे तीन सौ या चार सौ रूपये में अब हमें तो  करना नही था ,तो किसी तरह मना किया फिर भी एक लड़का हम लोगों के साथ हो लिया ये बोल कर कि मत करना स्नोर्कलिंग में वहां तक छोड़ देता हूँ,अगर वहां पहुँच के मन हो जाये  तो करवा देंगे। लाख मना करने के बाद भी वो हमारे साथ रास्ता लगा गया। अब वो आगे आगे हम पीछे पीछे ,हालाँकि हम उससे बात नहीं कर रहे थे फिर भी उसके आगे चलने से एक दो जगह फायदा ही हुआ होगा। आधे घंटे के इस ट्रैक में उतार सब देखने को मिले।इसके साथ- साथ सब जगह हरियाली का साम्राज्य  देखने मिला। अगर किसी को पहले  हो तो ये अनुमान लगाना मुश्किल है कि  रास्ता कहाँ  छोड़ने वाला है। रास्ते के कुछ फोटो-
 

ये पगडण्डी तो किसी हिल स्टेशन के गावं जैसी लग रही थी। 
दिशा निर्देश 
रास्ते पुल भी पड़ा था। 
                         इतनी हरियाली को पार करने के बाद अगर सामने से रेतीला मैदान दिखे तो देखना वाला तो अचम्भे में पड़ ही जायेगा कि अचानक से ये क्या हो गया। हमारे साथ  भी यही हुआ एक दम से लगा कि कहीं किसी रेगिस्तान में तो नहीं  पहुँच गए। थोड़ा और आगे बढे तो गन्दी सी दलदली रेत के साथ समुद्र भी दिखने लगा-
ये था वो दृश्य 
                      चाहे जमीन कैसी भी हो पेड़ों की जडे साँस लेने का रास्ता ढूंढ ही लेती हैं,इस चित्र में देखिये जड़ें किस तरह से जमीन से ऊपर आ  गयी हैं,क्यूंकि वो नमकीन पानी के दलदल में साँस नहीं ले पा रही थी।      
साँस लेने के लिए बाहर आई हुयी पेड़ों की जड़ें। 
                 थोड़ा और आगे बढ़ तो मंजर ये था रेतीली जमीन , एक दो गिने चुने हरे पेड़ और थोड़ा सा दिखता नीला समुद्र 
  
समुद्र से लिया गया एक दृश्य 
               रेतीली जमीन थोड़ा और नापने पर सी वाकिंग के लिए खड़ा एक जहाज दिखाई दिया,यहाँ से वो दृश्य दिखने प्रारम्भ हुए जिनके लिए अंडमान को जाना जाता है। एलिफेंटा बीच का नाम तैरने वाले हाथी के नाम पर पड़ा था,हालांकि हमें यहाँ किसी हाथी के दर्शन नहीं हुए। हैवलॉक का ये बीच मुख्य रूप से वाटर स्पोर्ट्स के लिए प्रसिद्ध है ,हम लोग गोवा में वाटर स्कूटर से ले के पैरासेलिंग तक लगभग सभी वाटर स्पोर्ट्स कर चुके थे,तो इस तरफ हमारा कोई रूझान नहीं था। लेकिन बैठकर देखने में बहुत मजा आ रहा था। पूरा तरीका आँखों के सामने था कैसे लोग अपनी बारी का इन्तजार कर रहे थे,फिर नंबर आने पर उन्हें सुरक्षा कवच से सुज्जित कर के पूरी ट्रेनिंग के साथ उनकी मन पसंद राइड में भेजा जा रहा था,जैसे जंग के मैदान में जा रहे हों। बैठने तक तो सब ठीक था उसके बाद आगे बढ़ने पर पल-पल चेहरे पर आने वाले रंग बदल रहे थे। कभी डर, कभी ख़ुशी ,कभी रोमांच का अनुभव और कभी लहरों से तरबरान हो जाना। कुछ लड़कों का ग्रुप बनाना बोट कर रहा था,इसमें पांच छह लड़के एक बोट में बिठाकर आगे ले जाते हैं और फिर नाविक उन्हें पानी में पलटा रहा था,क्या गजब का शोर मचा रहे थे वो लोग। पता नहीं ख़ुशी,थी,एक्साइटमेंट था या फिर डर,जो भी हो पर बैठकर ऐसे रोमांचकारी चीजों को देखने में भी उतना ही मजा आता है,जितना करने में आता है,कई बार बैठके देखना और ज्यादा आनन्द दायक भी साबित हो जाता है। इस बीच का सबसे बड़ा सौन्दय का कारण यहाँ पर गिरे हुए कई सरे पेड़ों के तने हैं जो नीले समुद्र,सफ़ेद रेत के आकर्षण में चार चाँद लगा रहे थे। 

वाटर स्पोर्ट्स 
अचानक से इस जगह को देखकर कभी ख़ुशी कभी गम के सूरज हुआ मद्दम वाले गाने की याद आ गयी थी। 

ये रेत में दिखती हुयी लकीरें कुछ और नहीं समुद्री पानी है,है न कितना साफ़ की समझना मुश्किल हो रहा था रेत में पानी है भी या नहीं 

                 काफी देर यहाँ बैठकर नज़ारे देखने के बाद मन नहीं होते हुए भी हमने वापस चलने की सोची क्यूंकि अब तक धुप बहुत बढ़ गयी थी इसलिए आधे  घंटे का ट्रैक अब कहाँ आधे घंटे में पूरा होना था साढ़े चार बजे हमारी फेरी पोर्ट ब्लेयर के लिए भी निकल पड़नी थी और होटल से सामन भी वापस लेना था। दो तीन पानी की बोतल और एक फ्रूटी ले कर हम डेढ़ बजे के करीब वापस चल पड़े। रास्ते में दो एक जगह थोड़ा रूक कर सुस्ता लिए,और जब पहुंचे तो ग्राम पंचायत द्वारा बनाये गए यात्री विश्राम स्थल में जो अड्डा जमाया कि दस पंद्रह मिनट तक हिलने का नाम नहीं लिया। इतने पे निरंजन भी वापस हमें लेने आ गये -

निरंजन गाइड हेवलॉक कांटेक्ट नंबर-

                              यहाँ से निकल कर होटल पहुंचे और वहां एक बार फिर पानी,कोल्ड ड्रिंक के राउंड के बाद पराठे भी बनवा लिए,अब पेट पूजा तो करनी ही थी। इतना करते करते तीन बज गया और हम हैवलॉक के बीच नंबर एक मतलब मुख्य जेटी यहाँ आवागमन का काम होता हैं,में पहुँच गए। यहाँ पर हमें निरंजन जी को भी  हिसाब करके विदा कर दिया। हैवलॉक में इतना घूमाने के लिए हमने उन्हें पहले से तय किये हुए बारह सौ रूपये दिए और मन में हैवलॉक की अनूठी यादों को बसाते हुए हुए गवर्मेन्ट  फेरी में बोर्डिंग का इन्तजार करने लगे। 
अंडमान का सफर एक नजर में -




Thursday 1 October 2015

Life time experience of scuba diving and snorkling:कैसी लगती है समुद्री जीवों की दुनिया,अनुभव स्नोर्कलिंग एवं स्कूबा डाइविंग का

                         हमारी धरती जल,थल और नभ इन तीनो से मिलकर बनी है,इनसे से लगभग दो नभ एवं थल से हम लोगों का वास्ता अमूमन पड़ ही जाता है। थल में तो हमारा  खुद का ही रैन बसेरा है,आकाशीय जीवो को भी हम देख लेते हैं। जैसे कभी उड़ती चिड़िया देख ली या  कभी बाल हठ में आकर उड़ती हुयी  तितली ही पकड़ ली ,वैसे अब तो वायुयानों में बैठकर  खुद भी  उड़ने लगे हैं।जलीय दुनिया से हम लोगों का साक्षात्कार अभी भी थोडा कम ही है। मनुष्य तो शुरू से ही थोड़ा अलग प्रकार का प्राणी रहा है, वो  दुनिया में तो रहना ही चाहता है और इसके साथ-साथ दूसरी दुनिया में भी अपना साम्राज्य स्थापित करना।ऐसे स्वभाव का मालिक  होने के बाद भले ही वो किसी जगह अपनी पैठ बनाने  कामयाब नहीं भी हो पर उस दुनिया से साक्षात्कार का मौका किसी भी हालत में नहीं छोड़ सकता। वैसे भी अनजानी दुनिया को देखने का आकर्षण सबसे ज्यादा रहता है ,इसलिए जलीय  जीव जंतुओं की दुनिया भी मानव की इस प्रवृति से अछूती नहीं रह पाई और समुद्र के पानी में उतर कर वहां विचरण करने   के भी कई उपाय  मानव जाति ने कर डाले। अभी तक  मेरी जानकारी में तीन तरीकें है-
१-Snorkeling  स्नोर्कलिंग 
२-Sea Walkin सी वाकिंग 
३-Scuba diving स्कूबा डाइविंग   
                        अंडमान जैसी जगह जो कि स्कूबा डाइविंग  और स्नोर्कलिंग के लिए प्रसिद्ध है ,जाने के  बाद जलीय जीवों से साक्षात्कार का मोह कम ही लोग छोड़ पाते हैं वो ही हमारे साथ  हुआ। पहले जॉली बॉय में स्नोर्कलिंग का आनन्द उठाया और फिर हैवलॉक में स्कूबा डाइविंग का। हालाँकि मैं पहले स्कूबा के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं थी,पर जिस दिन डाइविंग के लिए जाना था  उसके पहले दिन रात को अचानक मेरे अन्दर का सोया हुआ रोमांचकारी इंसान जाग गया और मैं भी तैयार हो गयी स्कूबा डाइविंग  के लिए। अगले दिन सुबह सात बजे बेटी को अपनी मौसी लोगों के साथ छोड़कर निश्चिंतता से हम लोग जीप में सवार हो कर डाइविंग लोकेशन की तरफ चल पड़े। ये अवसर हमारे लिए परिवार के साथ जाने के कारण ही बन पाया था, अकेले जाते तो साथ में स्कूबा डाइविंग करना सिर्फ एक सपना ही रह जाता।  साइट पर पहुंचे तो पता लगा अभी डाइविंग इंस्ट्रक्टर नहीं  आये हैं तो हम आस-पास के फोटो ही खींचने लगे। हमरी डाइविंग साइट गोविंदनगर की तरफ थी, पर जिस स्कूल के द्वारा हमें डाइविंग करवाई गयी उसका नाम दिमाग से बाहर  गया है। वो बंदा पहले मालवाण में डाइव करवाता था उसके बाद हेवलॉक में शिफ्ट हुआ था। यहाँ पर से पहले पानी और फिर मैंग्रोव के जंगल दिखाई  दे रहे थे। सुबह  का समय होने के कारण मौसम भी बहुत अच्छा था -
डाइविंग साइट से एक दृश्य,सुबह का समय और मोबाइल से खींची फोटो दोनों की वजह से उतना अच्छा नहीं हो पाया। 
                      इतना होते होते हमारे इंस्ट्रक्टर जी भी आ पहुंचे,जिन्होंने हमसे एक फॉर्म भरवाया जिसमे हमारी मेडिकल फिटनेस,इमरजेंसी कांटेक्ट,घर का पता ,होटल का एड्रेस जैसी जरूरी जानकारी देनी थी। उसके बाद स्कूबा डाइविंग के लिए बना हुआ स्विम सूट ,जूते वगेरह दिए। इसके साथ एक ऑक्सीजन का सिलिंडर भी लगाना होता है जो बहुत भारी होता है। हम दो लोग थे और हमारे साथ जाने वाले भी दो लोग थे एक इंस्ट्रक्टर और एक फोटोग्राफर। वो लोग ही काफी आगे तक हमारे सिलिंडर ले के आये। कदम दर कदम हम समुद्र की तरफ बढ़ रहे थे,शायद नीचे समुद्र थोड़ा पथरीला हो जो पैरों में लग रहा था। आगे बढ़ते हुवे एक क्षण ऐसा आया जब हम गर्दन तक समुद्र के आगोश में आ गए। यहाँ पहुँचने के बाद हमें इक्यूपमेंट और सिलिंडर लगा दिया गया। यहाँ पर सिलिंडर का भार बिलकुल भी पता नहीं लग रहा था।


                        इसके बाद हमारी ट्रेनिंग प्रारम्भ हुई कि कैसे साँस लेनी है ,किस तरफ मुंह में पानी चला जाये तो उसे निकालना है ,आगे जा के क्या क्या परेशानी हो सकती है। अब अंदर जा के बात तो कर नहीं सकते तो किस तरह से अपनी परेशानी गाइड को बतानी है। उन्होंने हर बात को इशारों में समझाना हमें सीखा दिया। अब आगे बढ़ना था ,मेरे दिमाग में ये ही सवाल था कि अगर समुद्र का पानी आ के जा के मुंह में भर गया तो कैसे निकालेंगे,अभी तो हवा में हैं आसानी से निकल जा रहा है काश की एक हेलमेट मिल जाता जिससे मुंह में पानी न भरे पर ऐसा हेलमेट तो सी वाकिंग में मिलता है। पर मन ये विश्वास करने के बाद कि डर के आगए जीत है आगे बढ़ने का सोच लिया। भगवान का नाम ले के थोड़ा ही आगे बढ़ थे कि नीचे पानी के अन्दर की रंग बिरंगी दुनिया हमारे स्वागत को तैयार बैठी थी ,कहीं पर मछली तो कहीं कोरल ,कही सीपियाँ,मन तृप्त हो गया इन्हे देखकर। करीब बारह फ़ीट नीचे जाने के बाद थोड़ा कान में जोर पड़ने लगा तो गाइड को इशारा किया "नोट ओके ,वापस ले चलो " और हम समुद्री दुनिया से एक छोटी सी मुलाकात कर के वापस उपर आ गए। प्रति व्यक्ति डाइविंग की कीमत तीन हजार पांच सौ रूपया थी जिसमे उन्होंने हमारी फोटोज की एक सीडी भी दी थी।खैर पैसा तो आना जाना है और यहाँ पर वो जाते जाते हमें एक लाइफ टाइम का एक्सपीरियंस  दिला गया। 
मछली जल की रानी है। 



एवरीथिंग इस ओके 
                        जो लोग स्कूबा डाइविंग करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं उनके लिए एक ओर तरीका है जो स्नोर्कलिंग के नाम से जाना जाता है ये थोडा आसान है क्योंकि इसके लिए हमें समुद्र में नीचे उतरने की जरूरत नहीं होती है ।जी हाँ इसमें हम समुद्र तट पर रहकर ही आनंद ले सकते हैं ।हमें बस इतना करना होता है कि एक मास्क लगाना होता है और सर नीचे कर के देखना होता है और जो चश्मा हमने पहना होता है उसमे मैग्नीफाइड लेंस लगा होता है जिसके द्वारा हम लगभग समुद्र के ऊपरी तल पर रहकर ही समुद्री दुनिया देख सकते है।स्कूबा डाइविंग करने से पहले एक बार स्नोर्कलिंग कर लेनी चाहिए जिससे थोडा कॉन्फिडेंस बढ़ जाता है।इसका खर्च प्रति व्यक्ति तीन सौ से चार सौ के मध्य रहता है जिसका अनुभव हमने जॉली बॉय आइलैंड में किया था ।स्नोर्कलिंग करते हुए इस अवस्था में रहना होता है -  
स्नोर्कलिंग
                              तीसरा तरीका है सी वाकिंग,इसमें स्पीड बोट में बैठाकर बीच समुद्र में ले जाया जाता है। यहाँ पर एक हेलमेट पहना कर बोट से जुडी हुयी सीढ़ियों से उतार कर नीचे ले वहां तक ले जाया जाता है जहाँ पर लगभग रेत का सीधा मैदान सा आ जाता है और वहां चलकर अपने आसपास मछली वगेरह को देख सकते हैं। इसका टिकट सत्ताईस सौ था पर ये हमने नहीं किया।एलिफेंटा बीच पर सी वाकिंग कराने के लिए खड़ी बोट को जरूर देखा था क्योंकि सिर्फ देखने का कहीं भी कोई पैसा नहीं लगता  है।
सी वाकिंग के लिए खड़ा बोट 
                         एक और आसान सा तरीका है ग्लास बॉटम बोट,जिसके बारे में जिक्र करना तो मैं भूल ही गयी,ये उन लोगों के लिए है जो बिलकुल भी पानी में उतरने की हिम्मत नहीं कर पाते हैं। इसमें लोगों को एक बोट जिसके निचले तले में मैग्नीफाइड लेंस लगा होता है में बैठाकर समुद्र में ले जाते हैं और बोट के तले में देखने पर उनलोगों को भी बिना पानी में उतरे समुद्री सम्पदा के दर्शन हो जाते है।

अंडमान का सफर एक नजर में -