Tuesday 26 July 2016

Road trip to Hyderabad

Travel date-24th december 2014      
      हैदराबाद, आज से करीब पाँच वर्ष पूर्व जब मैं पहली बार यहाँ गयी थी तो मुझे इस बात का जरा सा भी अंदाजा नहीं था कि दक्षिण के पठार और मूसी नदी के किनारे बसी इस जगह में घूमने के लिए इतने सारे और सब के सब विभिन्न प्रकार के स्थान होंगे। आज के समय में आईटी के लिए जाने वाला ये शहर कभी निजामों के नजाकत और नफासत के लिए प्रसिद्ध रहा है तो कभी यहाँ पर बहुतायत में बिकने वाले मोतियों के वजह से पर्ल सिटी के रूप में। यह जगह देश के लगभग सभी बड़े शहरों से वायु, रेल और सड़क मार्ग द्वारा अच्छे से जुड़ा हुआ है।

Thursday 21 July 2016

Hawa Mahal and Jantar Mantar,Jaipur

         आमेर के बाद हमारी यात्रा का अगला लक्ष्य था पेट पूजा करने के बाद हवा महल के दर्शन करना। इतने में ड्राईवर साहब बोले पुराने जयपुर के लक्ष्मी मिष्ठान भंडार में ही खा लेना और उसके बाद हवा महल देख लेना। इसका नाम काफी घुमक्कड़ मित्रो से सुना हुआ था तो हमने रजामंदी दे दी। पुराने जयपुर पहुंचे ही थे कि पेट में जोरों से चूहे कूदने लगे जैसे कह रहे हों बस अब हो गया और इंतजार नहीं होता। जब भूख लग ही गयी थी तो रुकने के अतिरिक्त और विकल्प नहीं बचा था इसलिए हम पास में ही एक ठीकठाक सा साफ़ सुथरा रेस्तरां देख कर बैठ गए। हमने दो स्पेशल थाली और बेटी के लिए मैंगो शेक का आर्डर दिया। खाने की गुणवत्ता अच्छी थी। तीन चार प्रकार की सब्जी और दो नॉन एक प्लेट में मिले,ऊपर से रायता और चावल अलग से।जल्दी जल्दी में खाना निपटाया और हवा महल की तरह का रुख किया। सुबह आते समय एक अलग ही पुराना जयपुर दिखा था, इस समय अलग ही नज़ारे दिखे। खुली खुली दुकाने, दुकानों में लटके कपडे। देखने से ही लग रहा था कि अच्छे मतलब सस्ते दामों में सामान मिल जाता होगा।पर हमारा लक्ष्य तो कुछ और ही था। हमें हवा महल पहुँचने की जल्दी थी। पुराने जयपुर की दुकानों पर नजर डालते हुए हम हवा महल पहुँच गए। गुलाबी रंग की इस पांच मंजिला इमारत में नौ सौ तिरेपन झरोखे बने हुये हैं। इन्ही झरोखों से राज परिवार की रानियाँ बाजार की रौनक देखा करती थी।इनमे भी बारीक़ सी जालियां लगी थी जिससे बाहर तो दिख जाये पर अंदर कोई ना देख सके। रानी महारानियों को पर्दा प्रथा के कारण खुले में बाहर निकलने की अनुमति नहीं होती थी। कभी कभी बहुत तकलीफ सी होती है इनके बारे में सोच कर, शायद सोने के पिंजरे में बंद चिड़िया की जैसी अवस्था होती होगी इनकी। होने को तो सब कुछ ही होगा पास में ,बस उड़ान भरने को पंख नहीं होंगे। किसी को देख नहीं सकते, दुनिया के सामने जा नहीं सकते,अपनी मर्जी से जी नहीं सकते।अगर किसी कारण विशेष से निकलना पड़ ही जाये तो लंबा सा घूँघट ओढ़ना तो अति आवश्यक ही हुआ। पर ये क्या, ये तो एक कैदी की सी अवस्था हुयी। या कहो कैदी का जीवन भी थोड़ा बेहतर होगा वो इस आस में जी लेता होगा कि कभी ना कभी तो उसकी सजा ख़त्म होगी ,पर इनकी सजा तो जन्म के साथ शुरू हो कर मृत्यु के साथ ही समाप्त होती होगी। हालाँकि इन झरोखों से क्या नजर आता होगा, जैसा खुली आँखों से खुले आसमान के नीचे लगता होगा। फिर भी भला हो सवाई प्रताप सिंह का जिसने इसे बनवाया। कुछ नहीं से तो थोडा बहुत दिखना ही अच्छा हुआ। बड़ी ही आकर्षक बनी है ये इमारत, जैसी फ़ोटो में दिखा करती थी ठीक वैसी ही लगी। इन झरोखों के आस पास रंग बिरंगे कांच लगे हुए हैं जो कि देखने में अच्छे लगते हैं और थोड़ी थोड़ी हवा भी आ रही थी, शायद इसी कारण इसे हवा महल कहते हों।
               यहाँ पर हमने ज्यादा समय नहीं व्यतीत किया और हवा महल के पीछे से होते हुए आगे बढ़ गए। इसके पिछवाड़े में भी कई सारी दुकाने बनाई गयी हैं। थोडा थोडा दिल्ली के चांदनी चौक जैसी जगह लग रही थी ये। पतली सी गलियाँ और ढेर सारी छोटी छोटी दुकाने। अब हमारा इरादा सीधे रेलवे स्टेशन जा के आराम फरमाने का सा था, पर रास्ते में ड्राईवर बोला सामने से जंतर मंतर दिखाई दे रहा है, अभी तो ट्रेन के आने में टाइम है थोड़ी देर जा के नजर एक नजर मार ही आओ जब गेट के पास खड़े ही हो तो। मन नहीं होते हुये भी उसका कहना मान कर हम उतर तो गए और मन में अफ़सोस मना रहे थे कि इतनी गर्मी तो नहीं थी फालतू में ही हम डर गए एक दिन रुक ही जाते तो अच्छा होता। पर जंतर मंतर में हमारा ये भ्रम बहुत अच्छी तरह से दूर हो गया। दोपहर में शायद एक से डेढ़ बीच का समय रहा होगा जैसे ही यहाँ पर एक दो खगोल यंत्र देखने शुरू किये गर्मी ने चपेटे लगाने शुरू कर दिए। मैं और सानवी तो एक जगह छाँव में विराजमान हो गए और ये कुछ यंत्रों को देखने के लिये आगे बढे। यहाँ पर मैंने कोई भी चीज ढंग से नहीं देखी और जो थोडा बहुत देखने का सोचा तो गर्मी ने होश उड़ा दिए। यहाँ पर दो तीन पानी की बोतल फटाफट खर्च हो गयी और यहाँ से भागे भागे जयपुर रेलवे स्टेशन पहुंचे। यहाँ पर हमको टेक्सी वाले ने एक रेस्तरां के पास उतारा। वो बोला आप यहीं से होते हुए चले जाओ तो छाया छाया में पहुँच जाओगे, फालतू में ही गेट से जाने पर लाइन में लगना पड़ेगा। अब हम यहाँ के सो कॉल्ड वातानुकूलित वेटिंग रूम में पहुंचे। बाहर से देखने पर ही मामला समझ आ गया। ऐसी था तो सही पर चल नहीं रहा था, उसके बदले पंखों से काम चलाया जा रहा था और भीड़ तो इतनी थी कि जैसे खड़े होने की भी जगह ना हो। यहाँ पर पता लगी जयपुर की असली गर्मी। खैर किसी तरह से ये समय कट गया और अपनी रानीखेत एक्सप्रेस आ गयी।  यहाँ के कठिन अनुभव के बाद उसकी सीट में बैठकर तो ऐसा लगा जैसे हम किसी आरामदायक सोफे में बैठे हों। हमने बुकिंग कराते समय ही साइड अपर और साइड लोअर सीट को प्राथमिकता दी थी, जिससे कि अपने हिसाब से सोना और बैठना कर सके। थोड़ी देर में हम तीनो बढ़िया नींद में थे और तब तक खाने वाला आ गया। दो प्लेट खाना मंगवा लिया । मंगा तो लिया पर अब खाओ कैसे बहुत ही थर्ड ग्रेड का खाना। पैसे लेते समय तो पनीर की सब्जी और फुल्के कहते हैं और देते समय मिर्ची का सालन और कड़कडे पापड़। मरता क्या ना करता वाली स्थिति थी अब भूख तो मिटानी ही थी, तो किसी तरह से कुछ निवाले हलक से नीचे उतारे। खाने के बाद थोड़ी देर गप करते और जयपुर के फ़ोटो देखते हुये कब नींद आई पता ही नहीं लगा और सुबह सीधे हल्द्वानी में ही आँख खुली।
यात्रा की कुछ झलकियां-

हवा महल।

हवा महल।
जयपुर के बाजार ।
जयपुर के बाजार।
यहीं कहीं से एक छोटे बच्चों का लहंगा लिया था।
जंतर मंतर।
जंतर मंतर
जंतर मंतर।






        जयपुर यात्रा-
        इस यात्रा की अन्य कड़ियाँ -

Tuesday 12 July 2016

Amer Palace,Jaipur

                   जयगढ़ फोर्ट के वैभव को देखकर नीचे उतरे तो प्रवेश द्वार के पास ही हमारा चौपहिया वाहन खड़ा था, अब एक बार फिर इसमें सवार होकर वातानुकुलित माहौल का लाभ उठाने का समय आ गया था। इसमें बैठकर हम ड्राइवर से आमेर के किले में जाने के विषय में चर्चा करने लगे,इतने में  तो वो बोला यहाँ पर मिनी ताजमहल भी है उसे देखते हुए जाओ। हम दोनों ही इस बात में इंटरेस्टेड नहीं थे,क्यूंकि अगर ताज महल ही देखना हो तो असली का देखेंगे मिनी ताज क्यों। फिर भी वो मना करने के बाद भी काफी जोर डालने लगा कि पांच मिनट ही तो लगेगा देख लो और उसने हमें एक शॉप  बाहर ला कर छोड़ दिया। शॉप देखकर के समझ आया कि माजरा तो यहाँ कमीशन खोरी का था और उसी वक्त हम दुबारा से गाड़ी में बैठ गए और उसे बोला कि सीधे से आमेर पहुंचा दे हमको कहीं इधर उधर नहीं जाना।  इस प्रकरण में दस से पंद्रह मिनट बर्बाद हो गए,खैर उसने आमेर के किले तक हमको पहुंचा दिया। इस प्रकार की घटनाओं से बड़ी खीज हो जाती है जब एक बार मना कर दिया तो फिर बार बार वो ही बात क्या करने का क्या औचित्य हुआ। यहाँ पर हमारे पास डेढ़ घंटे का टाइम था आमेर का किला  घूमने के लिए।  जल्दी जल्दी में टिकट लिया और टिकट के साथ ही एक  गाइड से  भी बात कर ली कि हमें यहाँ की मुख्य मुख्य चीजें दिखवा दे।
माअोथा झील,आमेर पैलेस और जयगढ़ दुर्ग।