Friday 2 December 2016

Chikmaglur: Land Of Coffee

 Travel date-9th October 2016      
        दक्षिण भारत के इन प्रसिद्ध मंदिरों की स्थापत्य कला के दर्शन करते करते दोपहर हो गयी थी। अब तक सूर्य भगवान शायद क्रुद्ध  अवस्था में आ चुके थे और बड़े बड़े पत्थरों से शोभायमान आँगन इतना तप गया था कि पैर जमीन पर रखना मुश्किल हो गया। जल्दी जल्दी इस गर्म प्रदेश से से हम चिकमगलूर के लिए रवाना हुए, वैसे जल्दी भी क्या कहा जाये बारह तो बज ही गया था। साउथ में बहुत हिल स्टेशन हैं लेकिन उत्तराखंड के निवासियों के लिए यहाँ के हिल स्टेशन उतना अधिक आकर्षण वाले नहीं होते हैं, अभी तक तो यही लग रहा था  कि बस जाना है किसी पहाड़ी जगह। 
     हलीबेडु से चिकमगलूर के रास्ते में एक बार को भी ऐसा आभास नहीं हुआ कि हम किसी पहाड़ी जगह पर जा रहे हैं ना ही वो ऊँचे नीचे मोड़ नजर आये और ना ही सर्पिलाकार सड़कें लेकिन हरियाली प्रचुर मात्रा में नजर आ रही थी। ये हरियाली ही थी जिसकी वजह से रास्ता बढ़िया बना हुआ था। वैसे  तो पूरा रास्ता ही मनोहारी था लेकिन कुछ कुछ जगहें विशिष्ट लगी जहाँ पर बिना रुके मन नहीं माना। जैसे एक जगह तो ऐसी लग रही थी कि सुन्दर सा चरागाह हो। एक बड़ा सा घास का मैदान और उस पर चहल कदमी करती हुई गायें। कहीं कहीं गायों का साथ मै-मै करती हुई बकरियां भी निभा रही थी।
              रास्ते में तीन जगह स्टॉप लेते हुये हम हलिबेडू से चालीस किलोमीटर दूर चिकमंगलूर सवा दो बजे पहुँच गए। शहर में पहुँच कर लगा अच्छा ये है चिकमंगलूर!!फर्स्ट इम्प्रैशन उतना जबरदस्त नहीं रहा। चिकमंगलूर पहले से हमारी यात्रा में शामिल नहीं था तो यहाँ क्या देखना है और क्या नहीं इसके विषय में अंदाजा नहीं के बराबर था।  पहले इस जगह का एक छोटा सा परिचय दे दूँ, उसके बाद चलते हैं यहाँ की सैर पर। 
                 कर्नाटक राज्य में स्थित चिकमंगलूर भारत में लैंड ऑफ़ कॉफी के नाम से विख्यात है। यहाँ के कॉफी प्लांटेशन के विषय में ये कथा प्रचलित है कि सूफी सन्त बाबा बूडन खेती करने के लिए अपनी बेल्ट में कॉफी के सात बीज छुपा  कर लाये थे और उसके बाद से कॉफी की खेती जो परवान चढ़ी कि ये जगह  कॉफी की खेती का स्वर्ग बन गयी। अब तो लोग यहाँ कॉफी के बागान देखने के लिए ही आते हैं।
            कन्नड़ में चिकमंगलूर का अर्थ होता है छोटी बेटी की जगह, इस नाम के पीछे भी मजेदार बात ही है ,बात ये है कि किसी पैसे वाले आदमी ने अपनी बेटी को ये जगह दहेज़ में दी थी और तबसे इसका नाम छोटी बेटी की भूमि अर्थात चिकमंगलूर हो गया। ये तो हो गया चिकमगलूर का परिचय, अब देखते हैं  यहाँ के दर्शनीय स्थल। यहाँ के मुख्य पर्यटक स्थल बाबा  बूडन की पहाड़ियों पर और मुलायनगिरी में ट्रैकिंग प्रेमियों के लिये बहुत अवसर  हैं और इन दोनों में ही पूरा एक दिन लग जाये , इतना समय ना हो तो कम से कम तीन घंटा तो लगेगा ही । कुछ देर तक इन दोनों में कंफ्यूजन रहा कि कहाँ जाएँ और अंततः शहर को छोड़कर बाइस किलोमीटर की दूरी  पर स्थित मुलायनगिरी की  तरफ बढ़ गए। आगे बढ़ तो गए लेकिन अभी भी हमें ये अंदाजा नहीं था कि हम क्या देखने जा रहे हैं।  एक बार को तो लगा अगर श्रवणबेलगोला जैसे चढ़ाई होगी तो हो गया हमारा काम। सारा टाइम सीढियाँ चढ़ने में ही निकल जायेगा लेकिन अब जॉब चिकमगलूर आ ही गए हैं तो, यहाँ की कम से कम एक प्रसिद्ध जगह देखना तो  बनता ही है। अभी थोड़ा ही आगे निकले थे कि कैफेटेरिया दिखाई दिया जो शायद यहाँ के लोगों के मुख्य आकर्षण का केंद्र रहता होगा क्योंकि यहाँ बहुत भीड़ लग रही थी गाड़ियों की। इधर एक सुंदरी की प्रतिमा सी बनाई गयी है और उसके नीचे एक छोटा सा  तालाब है। जिसके किनारे किनारे बच्चों के झूले वगेरह लगे हुए हैं। सड़क में ही बहुत सारे घोड़ें वाले घूम रहे थे जो पर्यटकों की तलाश में थे। हम इस जगह को देखने का लालच ना करते हुए आगे बढ़ गए जिससे अपने गंतव्य के लिए देर ना हो। जैसे जैसे ऊपर बढ़ते गए पहाड़ों के करीब होने का अहसास होने लगा। अब ये लगने लगा था कि हम किसी पहाड़ी जगह में हैं। सड़कों में ऊँचे नीचे मोड़ पड़ने लगे और सामने से गजब की हरियाली वाली पहाड़ियाँ  दिख रही थी। एक अरसा हो गया था ऐसे हरी भरी जगह देखे हुए। एक दो व्यू पॉइंट में हम लोग रुके।  कहीं पर नीचे गहरी खाइयां दिख रही थी तो कहीं ऊँचे ऊँचे पहाड़ और उनके ऊपर मंडराते हुए कोहरे के बादल। सच कहूँ तो उन कोहरे के बादलों को छू लेने का मन हो रहा था। दायें बायें देखते हुए हम आगे बढ़ रहे थे, अब सड़के पतली हो गयी थी और खाइयाँ ज्यादा गहरी। राह में आगे बढ़ते बढ़ते हम मुलायनगिरी में उस जगह पहुँच गए जहाँ पर गाड़ियाँ खड़ी करके आगे बढ़ते हैं। वहाँ पर पार्किंग के लिए लोग पैसे की मांग कर रहे थे तो हमने सोचा थोड़ा आगे बढ़कर लगाते हैं इतने में सामने हरे भरे पहाड़ के दर्शन हो रहे थे , जिनमे कुछ लोग बैठे थे तो कुछ उस पहाड़ पर चढ़ रहे थे। लेकिन गाड़ी कहाँ कड़ी करें ये देखते देखते हम आगे निकल गए। आगे निकल कर देखा कि पहाड़ियों के बीच सड़कें दिख रही थी ऊपर और उन पर जाती हुयी छोटी छोटी गाड़ियाँ।  इनको देख के हमने सोचा जहाँ तक जा सकते हैं वहाँ तक ले जाते हैं। ऐसा करते करते हम तीन किलोमीटर ऊपर तक पहुँच गए। अब रोड की हालात एक दम  ख़राब थी जिसमे गाड़ी ले जाना किसी भी तरह संभव नहीं लग रहा था। यहाँ पर कुछ लोगों को देखते हुए हमने अपनी गाड़ी रिवर्स कर के मोड़ ली जिससे वापसी के समय दिक्कत न हो।
                  अब यहाँ से हमने पैदल चलना शुरू किया और अब तक जो पहाड़ दिखाई  दे रहे थे वो ऊंचाई ज्यादा होने की वजह से कोहरे में डूबे हुए से लगने लगे और बहुत धुंधले धुंधले से लग रहे थे। गजब का कोहरा टपक रहा था यहाँ पर जा कहूँ कोहरे की वजह से बारिश का सा अनुभव हो रहा था। छोटे बच्चे तो कोहरे की चादर को देखकर बर्फ भी समझ रहे थे। कुछ देर यहाँ पर खूब सारे फोटो लिए और  नीचे की तरफ उतरने लगे क्योंकि बच्चे के हिसाब से थोड़ा ठण्ड भी हो रही थी, जबकि मंकी कैप भी साथ में लेकर गए थे। नीचे उतरते हुए मन में ये तय कर लिया था कि जो नीचे वाली पहाड़ी दिख रही थी उसमे ऊपर तक चढ़ के देखेंगे। फोटो लेते हुए ढलान वाली सड़क में सावधानी से चलते हुए एक जगह से नीचे वाली पहाड़ी जिसमे चढ़कर हम उसके टॉप तक जाने का सोच रहे थे, उस पर थोड़ा सा चलकर जाने का रास्ता दिखाई दिया।  इस रास्ते में जाने से दो फायदे थे एक तो नीचे से ऊपर तक चढ़ने में जो टाइम लगना था वो बच गया और अगर हम नीचे से चढ़ना शुरू करते तो पता नहीं ऊपर तक जा भी पाते या नहीं। इस तरह से हमें उस टॉप पॉइंट में जाने का एक शार्ट कट रास्ता मिल गया।  कुछ लोग जा रहे थे उस रास्ते पर तो हम भी उनके साथ साथ चल पड़े। ये रास्ता पतली पगडण्डी वाला था और नीचे को गहरी खाइयाँ नजर आ रही थी। ये जगह दूर से देखने में इस प्रकार की बनी  थी जैसे कोई जंगली जानवर दूसरी वाली बड़ी पहाड़ी की और अपना मुंह कर के बैठा हो।  एक हरी पहाड़ी थी और उसके ऊपर एक चट्टान आगे को मुंह सा निकले हुये थी। चलते चलते हम इस पॉइंट/ पत्थर की बनी चट्टान तक  पहुँच गए। यहाँ पर लोगों का जबरदस्त फोटो सेशन चल रहा था और चलता भी क्यों नहीं आखिर जगह ही कुछ ऐसी थी कि आँखे बस एक स्थान पर ठहर जाएँ। इन सबके अतिरिक्त एक ऐसी बात थी जिसने सोचने पर मजबूर कर दिया कि आज के युवा सेल्फी और फोटो के लालच में कुछ भी कर जाते हैं। पहले तो एक लड़का उस चट्टान के ऊपर खड़े हो के फोटो खिंचा रहा था जिसके नीचे आधा बेस तो गायब ही था। मन तो उसे देखकर के ही डर गया था, लेकिन ये लोग फोटो के लिए अपनी जान से खेलने को भी कुछ नहीं समझते हैं। थोड़ी देर में उसका साथी आया और खड़े हो के फोटो करवाने की जगह उस चट्टान पर उल्टा बैठ गया। खैर वो ठीक थक फोटो खिंचवा के वापस आ गया। इस जगह के ऊपर भी एक दो व्यू पॉइंट थे हम उन तक गए और फिर वापस नीचे उतर कर गाड़ी से नीचे वाली पहाड़ी तक पहुँच गए।
         कोहरे की रुमझुम वाली बरसात में भीगने से अब तक मीठी मीठी ठण्ड अपना जोर मार गयी थी और जबरदस्त चाय की तलब लग गयी थी। अँधा क्या चाहे दो आँखे वाली बात के जैसे हम एक छोटी सी दुकान में झपट पड़े। वैसे मुझे लगा था यहाँ पर चार पाँच छोटी बड़ी दुकाने तो होंगी ही लेकिन आशा के विपरीत सिर्फ एक ही दुकान का फड़ लगा हुआ था। खाने के लिये भी ज्यादा विकल्प नहीं थे सिर्फ मुरमुरे से बनने वाली भेलपूरी थी। उसमें भी वो लड़का कच्चा तेल डाल रहा था। अब कुछ ना कुछ तो लेना ही था तो बिना तेल के एक प्लेट मुरमुरा ले लिया और दो चाय। छोटे छोटे कप में मिलने वाली चाय के कप से मन भरना तो मुश्किल ही हुआ। इसलिए दो कप चाय और मांग लिये। चाय पीने के बाद थोडा सा हरी घास के पहाड़ में चढ़ने की कोशिश करी और मन नहीं होते हुये भी साढ़े चार बजे हम यहाँ से कारकोलाले झील की तरफ। नीचे को उतरते हुये जल्दी में होने के बाद भी हम एक दो झरनो के पास रुके और उसके बाद गाडी भगाते हुये चल निकल पड़े झील की राह पर। रास्ता उबड़ खाबड़ तो था ही उस पर हमारे आगे एक नौसिखिया गाड़ी वाला आ गया उसके चलते हमको पंद्रह मिनट की देर हो गयी। हालांकि ये पंद्रह मिनट की देरी दिन के समय उतनी ज्यादा नहीं होती लेकिन शाम के समय बहुत मायने रखती है क्योंकि हमको सकलेशपुर वापस भी जाना था। यहाँ पर हमने सूर्यास्त के समय का सिंदूरी आसमान और झील में पड़ते उसके प्रतिबिम्ब को देखा। यहाँ पर लगाने के लिए हमारे पास ज्यादा समय तो था ही नहीं और जल्दी जल्दी में हम सकलेशपुर के लिये निकल पड़े। अभी भी हमें अस्सी किलोमीटर के आस पास जाना था और शाम का टाइम भी था तो हमने वन शॉट में जाने का सोचा मतलब अब कहीं नहीं रुकने का था और जब तक हल्का उजाला था तब तक जितना ज्यादा हो सके उतनी दूरी तय करना जरुरी था।  हमने पौने आठ बजे सकलेशपुर पहुँचने का टारगेट रखा और बेलूर सोमवारपेट पर आगे बढ़ रहे थे। लेकिन रास्ते में जो गजब का जाम मिला कि आधा घंटा तो वहीँ पर बर्बाद हो गया और इसके बाद रास्ते में पड़ा सुनसान जंगल वाला रास्ता। अक्सर जो रस्ते दिन के उजाले में सुन्दर लगते हैं, वो रात के अँधेरे में डरावने लगने लगते हैं। इस रास्ते में बहुत ही कम गाड़ियां थी और जो आ भी रही थी वो जल्दी ही आँखों से ओझल हो रही थी। फिर थोड़ी देर में एक बाइक वाला आया जिसने सकलेशपुर तक हमारा पूरा साथ दिया और अंततः पौने नौ बजे हम होटल पहुँच ही गये।
इस यात्रा के चलचित्र-
छोटे छोटे पहाड़। 

बकरियों का झुण्ड। 


ज़ूम करके झील दिखेगी। 

कोहरे के बादल।






यहाँ से टॉप के लिए शार्ट कट था। 

हरियाली चादर। 

इस पहाड़ी में टॉप तक जाना था। 

पार्किग स्थल। 
झरना। 


आकर्षण। 

झील। 

व्यू पॉइंट। 
इस यात्रा की समस्त कड़ियाँ -

6 comments:

  1. हर्षिता जी आपने बहुत सुन्दर जगह की सैर कराई।

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  2. मेरे लिए एकदम अनजान पर खूबसरत जगह । अच्छा लेख व् तस्वीरें ।

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  3. शुक्रिया चिकमगलूर के बारे में इस जानकारी के लिए !

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  4. अक्सर जो रस्ते दिन के उजाले में सुन्दर लगते हैं, वो रात के अँधेरे में डरावने लगने लगते हैं। ये बात बिल्कुल सही है ! चिकमंगलूर की कहानी रोचक है ! ये पहाड़ी इलाका तो नही लगता लेकिन ग्रीनरी बहुत सुन्दर है !! आकर्षण - फोटो बहुत शानदार ली है , और जगह भी बहुत खूबसूरत है !

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  5. बहुत सुंदर और जानकारी से पूर्ण वृतान्त

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