बोनस के रूप में मिले चिकमंगलूर के बाद फाइनली आज हम सकलेशपुर की सैर पर निकलने वाले थे। पहले दिन से बहुत थके होने के कारण सुबह आँख देर से ही खुल पायी। फिर सोचा दिनभर काफी घूमना है तो ब्रेकफास्ट होटल से ही करके चलते हैं जिससे फिर खाना मिले ना मिले तो कोई टेंशन ना रहे। इस समय साथ में एक ही जगह तीन छोटे बच्चे थे तो टाइम ज्यादा लगना अवश्यम्भावी था। इसलिए हम अच्छे से खा पीकर नौ बजे होटल से निकले। दोनों गाड़ियाँ एक दूसरे का साथ निभाते हुये आगे बढ़ रही थी।
Travel date-10th October 2016
आज के दिन का पहला टारगेट पाँच किलोमीटर की दूरी में बना हुआ मंजराबाद फोर्ट था। यहाँ पहुँचने में तो ज्यादा टाइम क्या लगना था तो पहुँच ही गये। वहाँ जा कर लगा की यहाँ कहाँ कोई किला होगा सीधी सीधी रोड नजर आ रही थी। दांये बाएं नजर दौड़ाई तो भी कुछ ना दिखा। दिखता भी कैसे क्योंकि सड़क के आस पास कुछ नहीं बना था । फिर दिमाग लगा के जीपएस की सेवा ली तो पता लगा अभी पंद्रह मिनट के करीब सीढियाँ चढ़नी थी और उसके बाद एक संकरा सा रास्ता दिखाई दिया मिट्टी की पगडण्डी जैसा। कुछ देर उस पर चलने के बाद मंजराबाद किले को ले जाने वाली सीढियाँ नजर आयी। धीरे धीरे कछुवे की चाल से कैमरा साथ साथ चलाते हुये हम किले के मुख्यद्वार तक पहुँच ही गए और थोड़ी देर वहीँ जम गए। किले के मुख्य द्वार के पास सामने से बनी दीवार पर तीन चार पत्थर की सीढियाँ जैसी बनी हुयी थी। पुराने समय में तो ये ना जाने किस लिये इस्तेमाल होती होंगी,अभी तो ये युवाओं के शौर्य प्रदर्शन का अड्डा बनी हुई थी। आगे बढ़ते गए तो किले के अंदर की आकृति समझ आती गयी। अपने आप में तो ये एक सितारे की जैसी आकृति में बना हुआ है तो इसके अंदर जगह -जगह क्रॉस के आकार के गड्ढे से बने हुये थे जिनमें पानी का संचय किया जाता था। इनमे उतरने के लिए हलकी हलकी सीढियाँ भी बनी हुई थी जिनसे नीचे जा सकते थे। उनके टूटी फूटी अवस्था में होने के कारण हमने ऐसा कोई जोखिम नहीं उठाया। यहाँ बहुत सारे छोटे छोटे कमरे बने हुये थे जो बच्चों के खेल का अड्डा बन गए और खूब छुपने वाला खेल कर रहे थे। इसके बाद हम किले के अंतिम सिरे में पहुँच गए और वहां से द्रश्य निहारने लगे। जितनी हरियाली किले के अंदर थी उतनी ही बाहर भी नजर आ रही थी। समझ ही नहीं आ रहा था कि किले की तारीफ करूँ या आस पास में दिखने वाली हरियाली की। सचमुच जिस हरे रंग के लिये सक्लेशपुर को जाना जाता है उससे बढ़कर ही पाया। एकदम विस्मृत सा कर दिया इसने तो । हरे रंग की कारपेट, उसपर आसमानी रंग की छतरी लिए आसमान और कहीं कहीं मंडराते श्वेत रंग के बादल एक प्रकृति प्रेमी के लिए सबकुछ ही था यहाँ पर। मन ही मन हम बहुत खुश थे की जब यहाँ के प्रारंभिक भृमण में ही ऐसे नज़ारे दिख रहे थे तो आगे तो और भी गजब हो जायेगा।
मन में प्रकृति के और करीब जाने का उत्साह लिये अब हम दिन की दूसरी डेस्टिनेशन बिसले घाट की तरफ रवाना हो गये जो कि यहाँ से चालीस किलोमीटर दूर था। अब फिर हमारा एक के पीछे दूसरे के रुकने वाला सिस्टम फिर शुरू हो गया। यहाँ पर कुछ अच्छा दिखा रुक जाओ इसके अतिरिक्त तीनो बच्चे भी रुकने के भरपूर अवसर दे रहे थे। रुकते रुकते करीबन दस किलोमीटर पर हम फिर रुक गए । पीछे से भाई भी रुक गया और पूछता है क्या हुआ मैंने बोला उधर देखो चलते हैं। फिर उसने कहा चलो फिर उतरो। कसम से गजब की जगह लग रही थी ये तो एक दम हरी घास का ढलवा लंबा सा मैदान और उसके सामने से नजर आते हरे हरे पहाड़। अपने पहाड़ों में ऊंचाई में होने वाले बुग्यालों को मात दे रही थी ये जगह तो। इस मैदान में आगे बढ़ते रहे तो एक जगह में वो पॉइंट आ गया जहाँ से नीचे जाना थोड़ा मुश्किल था। जम कर फोटो खींचे यहाँ पर। इधर से नीचे धान के खेत थे। अब तक हमने हरे रंग के इतने शेड्स देख लिये थे जिनकी गिनती कर पाना मुश्किल था और तो हवा के बहाव के साथ खेतों के रंग में अपनेआप अंतर आ जा रहा था। बहुत ही जबर्दस्त जगह, लेकिन आश्चर्य ये था कि इतनी सुन्दर जगह ट्रिप एडवाइजर में मार्क नहीं है और ना ही इस जगह का कुछ नाम है शायद। कहूं मालूम हुआ तो जरूर बताउंगी।
हमारी मंजिल तो बिसले घाट था और वहाँ जाने के लिए इस सुन्दे जगह को अलविदा कर के सड़क में आ गये। ऊपर आ कर देखा तो पता लगा हमारी गाड़ी की बैक लाइट ऑफ नही हो रही है मतलब अब गाड़ी दिखाने का काम और बढ़ गया था। आज वापस बैंगलोर निकलना है तो अब टाइम का ध्यान देना बहुत जरुरी था। बिसले घाट की तरफ आगे बढे तो एक वर्कशॉप मिल गयी जहाँ पचास रूपया दे कर समस्या हल हो गयी। विजयादशमी का पहला दिन होने के कारण अभी आयुध पूजा हो रही थी तो प्रसाद के रूप में दो ग्लास गर्म दूध और प्रसाद भी दे दिया। यहाँ से रोड की हालत खराब होती गयी। एक दम खटकेदार हो रही थी बस ये था कि जाने लायक थी। हम भी थे धुन के पक्के कि आ गये हैं तो जहाँ तक गाड़ी जायेगी वहाँ तक जायेंगे जरूर। इतने में धीमी धीमी बारिश शुरू हो गयी और अब लगने लगा कहीं इतनी मेहनत बर्बाद ना हो जाये। पर मन में ये था कि अब भले छाता ले के भी जाना पड़े लेकिन जाना तो है ही। फाइनली इस रोड को पार कर के हम बिसले घाट पहुँच ही गये। हलकी बारिश थी और दो छाते में बच्चों को कर के हम यहाँ से पैदल बिसले व्यू पॉइंट की तरफ आगे बढे। एक छोटी मोटी फारेस्ट ट्रैकिंग कहा जा सकता है इसे। चल बेटा सेल्फी ले ले रे, के साथ हम इसे पार कर रहे थे और एल दुमंजिले व्यू पॉइंट में हम पहुँच गए। यहाँ से तीन बड़े बड़े पहाड़ हमारे सामने अपनी विशालता लिये हुये खड़े थे और भयँकर खतरनाक जंगल सिमटा हुआ था इनकी विशालता के आगे। कुछ हद तक रोमांचक लेकिन भयावह द्रश्य था यहाँ से। अब तक बारिश भी गायब हो गयी थी और हमारे वापस जाने का टाइम भी । यहाँ से सक्लेशपुर पहुँचने तक हमको तीन बज गया। नाश्ता ज्यादा मार रखा था तो हमको निकलने में भलाई लगी। अब टारगेट ये था उजाले उजाले में मैंगलोर-बैंगलोर हाईवे में पहुँच जायें। एक बार हाई वे में पहुँच गये तो फिर उतना रिस्क नही लगता। अभी थोड़ा आगे बढे तो एक नदी के पास सूर्यास्त होता दिख रहा था यहाँ पर पांच मिनट का स्टॉप लिया और उसके बाद एक जगह धान के खेत सामने से थे वहाँ जाने का मोह हम त्याग नहीं पाए और फिर से रुक गए। इन दोनों के अलावा सिर्फ एक स्टॉप लिया रात को नौ बजे खाने के लिये और उसके बाद ग्यारह बजे रात सक्लेशपुर ट्रिप के सुखद समापन के साथ घर पहुँच गये।
चित्र-
इस यात्रा की समस्त कड़ियाँ -
Drive to Sakleshpur:Shravanbelgola
Belur-Helibedu
Chikmaglur: Land Of Coffee
Sakleshpur, The Green Land
Travel date-10th October 2016
आज के दिन का पहला टारगेट पाँच किलोमीटर की दूरी में बना हुआ मंजराबाद फोर्ट था। यहाँ पहुँचने में तो ज्यादा टाइम क्या लगना था तो पहुँच ही गये। वहाँ जा कर लगा की यहाँ कहाँ कोई किला होगा सीधी सीधी रोड नजर आ रही थी। दांये बाएं नजर दौड़ाई तो भी कुछ ना दिखा। दिखता भी कैसे क्योंकि सड़क के आस पास कुछ नहीं बना था । फिर दिमाग लगा के जीपएस की सेवा ली तो पता लगा अभी पंद्रह मिनट के करीब सीढियाँ चढ़नी थी और उसके बाद एक संकरा सा रास्ता दिखाई दिया मिट्टी की पगडण्डी जैसा। कुछ देर उस पर चलने के बाद मंजराबाद किले को ले जाने वाली सीढियाँ नजर आयी। धीरे धीरे कछुवे की चाल से कैमरा साथ साथ चलाते हुये हम किले के मुख्यद्वार तक पहुँच ही गए और थोड़ी देर वहीँ जम गए। किले के मुख्य द्वार के पास सामने से बनी दीवार पर तीन चार पत्थर की सीढियाँ जैसी बनी हुयी थी। पुराने समय में तो ये ना जाने किस लिये इस्तेमाल होती होंगी,अभी तो ये युवाओं के शौर्य प्रदर्शन का अड्डा बनी हुई थी। आगे बढ़ते गए तो किले के अंदर की आकृति समझ आती गयी। अपने आप में तो ये एक सितारे की जैसी आकृति में बना हुआ है तो इसके अंदर जगह -जगह क्रॉस के आकार के गड्ढे से बने हुये थे जिनमें पानी का संचय किया जाता था। इनमे उतरने के लिए हलकी हलकी सीढियाँ भी बनी हुई थी जिनसे नीचे जा सकते थे। उनके टूटी फूटी अवस्था में होने के कारण हमने ऐसा कोई जोखिम नहीं उठाया। यहाँ बहुत सारे छोटे छोटे कमरे बने हुये थे जो बच्चों के खेल का अड्डा बन गए और खूब छुपने वाला खेल कर रहे थे। इसके बाद हम किले के अंतिम सिरे में पहुँच गए और वहां से द्रश्य निहारने लगे। जितनी हरियाली किले के अंदर थी उतनी ही बाहर भी नजर आ रही थी। समझ ही नहीं आ रहा था कि किले की तारीफ करूँ या आस पास में दिखने वाली हरियाली की। सचमुच जिस हरे रंग के लिये सक्लेशपुर को जाना जाता है उससे बढ़कर ही पाया। एकदम विस्मृत सा कर दिया इसने तो । हरे रंग की कारपेट, उसपर आसमानी रंग की छतरी लिए आसमान और कहीं कहीं मंडराते श्वेत रंग के बादल एक प्रकृति प्रेमी के लिए सबकुछ ही था यहाँ पर। मन ही मन हम बहुत खुश थे की जब यहाँ के प्रारंभिक भृमण में ही ऐसे नज़ारे दिख रहे थे तो आगे तो और भी गजब हो जायेगा।
मन में प्रकृति के और करीब जाने का उत्साह लिये अब हम दिन की दूसरी डेस्टिनेशन बिसले घाट की तरफ रवाना हो गये जो कि यहाँ से चालीस किलोमीटर दूर था। अब फिर हमारा एक के पीछे दूसरे के रुकने वाला सिस्टम फिर शुरू हो गया। यहाँ पर कुछ अच्छा दिखा रुक जाओ इसके अतिरिक्त तीनो बच्चे भी रुकने के भरपूर अवसर दे रहे थे। रुकते रुकते करीबन दस किलोमीटर पर हम फिर रुक गए । पीछे से भाई भी रुक गया और पूछता है क्या हुआ मैंने बोला उधर देखो चलते हैं। फिर उसने कहा चलो फिर उतरो। कसम से गजब की जगह लग रही थी ये तो एक दम हरी घास का ढलवा लंबा सा मैदान और उसके सामने से नजर आते हरे हरे पहाड़। अपने पहाड़ों में ऊंचाई में होने वाले बुग्यालों को मात दे रही थी ये जगह तो। इस मैदान में आगे बढ़ते रहे तो एक जगह में वो पॉइंट आ गया जहाँ से नीचे जाना थोड़ा मुश्किल था। जम कर फोटो खींचे यहाँ पर। इधर से नीचे धान के खेत थे। अब तक हमने हरे रंग के इतने शेड्स देख लिये थे जिनकी गिनती कर पाना मुश्किल था और तो हवा के बहाव के साथ खेतों के रंग में अपनेआप अंतर आ जा रहा था। बहुत ही जबर्दस्त जगह, लेकिन आश्चर्य ये था कि इतनी सुन्दर जगह ट्रिप एडवाइजर में मार्क नहीं है और ना ही इस जगह का कुछ नाम है शायद। कहूं मालूम हुआ तो जरूर बताउंगी।
हमारी मंजिल तो बिसले घाट था और वहाँ जाने के लिए इस सुन्दे जगह को अलविदा कर के सड़क में आ गये। ऊपर आ कर देखा तो पता लगा हमारी गाड़ी की बैक लाइट ऑफ नही हो रही है मतलब अब गाड़ी दिखाने का काम और बढ़ गया था। आज वापस बैंगलोर निकलना है तो अब टाइम का ध्यान देना बहुत जरुरी था। बिसले घाट की तरफ आगे बढे तो एक वर्कशॉप मिल गयी जहाँ पचास रूपया दे कर समस्या हल हो गयी। विजयादशमी का पहला दिन होने के कारण अभी आयुध पूजा हो रही थी तो प्रसाद के रूप में दो ग्लास गर्म दूध और प्रसाद भी दे दिया। यहाँ से रोड की हालत खराब होती गयी। एक दम खटकेदार हो रही थी बस ये था कि जाने लायक थी। हम भी थे धुन के पक्के कि आ गये हैं तो जहाँ तक गाड़ी जायेगी वहाँ तक जायेंगे जरूर। इतने में धीमी धीमी बारिश शुरू हो गयी और अब लगने लगा कहीं इतनी मेहनत बर्बाद ना हो जाये। पर मन में ये था कि अब भले छाता ले के भी जाना पड़े लेकिन जाना तो है ही। फाइनली इस रोड को पार कर के हम बिसले घाट पहुँच ही गये। हलकी बारिश थी और दो छाते में बच्चों को कर के हम यहाँ से पैदल बिसले व्यू पॉइंट की तरफ आगे बढे। एक छोटी मोटी फारेस्ट ट्रैकिंग कहा जा सकता है इसे। चल बेटा सेल्फी ले ले रे, के साथ हम इसे पार कर रहे थे और एल दुमंजिले व्यू पॉइंट में हम पहुँच गए। यहाँ से तीन बड़े बड़े पहाड़ हमारे सामने अपनी विशालता लिये हुये खड़े थे और भयँकर खतरनाक जंगल सिमटा हुआ था इनकी विशालता के आगे। कुछ हद तक रोमांचक लेकिन भयावह द्रश्य था यहाँ से। अब तक बारिश भी गायब हो गयी थी और हमारे वापस जाने का टाइम भी । यहाँ से सक्लेशपुर पहुँचने तक हमको तीन बज गया। नाश्ता ज्यादा मार रखा था तो हमको निकलने में भलाई लगी। अब टारगेट ये था उजाले उजाले में मैंगलोर-बैंगलोर हाईवे में पहुँच जायें। एक बार हाई वे में पहुँच गये तो फिर उतना रिस्क नही लगता। अभी थोड़ा आगे बढे तो एक नदी के पास सूर्यास्त होता दिख रहा था यहाँ पर पांच मिनट का स्टॉप लिया और उसके बाद एक जगह धान के खेत सामने से थे वहाँ जाने का मोह हम त्याग नहीं पाए और फिर से रुक गए। इन दोनों के अलावा सिर्फ एक स्टॉप लिया रात को नौ बजे खाने के लिये और उसके बाद ग्यारह बजे रात सक्लेशपुर ट्रिप के सुखद समापन के साथ घर पहुँच गये।
चित्र-
स्टंट मेन |
किले में जाने का रास्ता। |
इसके बाद एक और दरवाजा पड़ा। |
किले के अंदर की विभिन्न आकृतियां। |
हरा मैदान सा ही लग रहा था ये किला तो। |
बच्चों के अड्डे। |
किले की और जाने वाली सीढियाँ, यहाँ बहुत सी छुई-मुई के पेड़ थे। |
रोड टू बिसले घाट |
हरी घास का कालीन। |
घास का ढलवा मैदान। |
बिसले व्यू पॉइंट का रास्ता। |
व्यू फ्रॉम बिसले। |
घना जंगल। |
रास्ते में अचानक से मिली नदी। |
विंड मिल से सामना होना तो जरुरी हुआ। |
नदी किनारे सूर्यास्त जबरदस्त लगता है। |
Drive to Sakleshpur:Shravanbelgola
Belur-Helibedu
Chikmaglur: Land Of Coffee
Sakleshpur, The Green Land
एक नई जगह से परिचय कराने हेतु धन्यवाद ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर...👍
ReplyDeleteबहुत बढ़िया।
ReplyDeleteएक बेहतरीन यात्रा की सफल वापसी ! किला बहुत पुराना नजर आ रहा है और मेन्टेन भी ज्यादा नही है , लेकिन आसपास की हरियाली ने शानदार द्रश्य बनाया हुआ है !!
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