आज के दिन का ऊटी भ्रमण कुछ अलग सा ही रहा या क्योंकि आज के दिन सुबह उठने तक भी ये अंदाजा नहीं हो रहा था कि जाना कहाँ है। खैर ट्रिप एडवाइजर में नजर डाली तो एक झील पे जा के दिमाग अटका। झील का नाम था अवलांची लेक और लोगों से गजब की तारीफ पायी थी इसने तो जिसे देखो उसने यही लिखा था मेमराइजिंग,अमेज़िंग तो सोचा एक बार देख ही आते हैं इस जगह को। होटल वाले से बात करी तो वो झील के नाम पर मुंह सा बनाने लगा। हम हुये धुन के पक्के जब मन में ठान लिया जाने का तो जा के रहेंगे। गूगल मैप में लोकेशन डाली तो पता लगा कि तेईस किलोमीटर दूर है और हम निकल पड़े इस एक तरह से छुपी हुई इस अवलांची झील से साक्षात्कार करने के लिये।
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ये ही है वो जगह। |
Travel date-18 December 2016
ऊटी शहर से निकलने के बाद रास्ते में हमें काफी छोटे छोटे घनी बसासत वाले मकान देखने को मिले,शायद ये यहाँ के गाँव होंगे वैसे कुछ कुछ नाम भी लिखे हुये नजर तो आ रहे थे लेकिन अपने लिये तो काला अक्षर भैंस बराबर हुआ। अपनी भाषा अज्ञानता और जीपीस वे गुण गाते हुये हम आगे बढे। बहुत मुश्किल से एक जगह में अंग्रेजी भाषा में लिखा हुआ अवलांची दिखाई दिया तो मन में आस बंध गयी कि अब तो झील नजदीक ही होगी। उतने में एक टैक्सी वाला हमारे पीछे से ओवर टेक करते हुये निकली और वो बोला अवलांची, मेरे पीछे आओ। हमको उतना भरोसा नहीं बन पाया उस पर और हम अपने रास्ते ही आगे बढे अब जा के जीपीस ने बताया अवलांची लेक तीन सौ मीटर में है और हमको लगा चलो मंजिल आ ही गयी है और इस छुपी हुई झील की एक झलक नजर भी आ गयी लेकिन ज्यादा खुश ना होना अभी क्योंकि झील तक जाने का कोई रास्ता मालूम नहीं पड़ रहा था फिर अँधेरे में तीर जैसे मारते हुये हम उस अकेली गड्ढेदार सड़क में आगे बढ़ते रहे कि शायद झील तक जाना संभव नही होगा पर आगे किसी जगह पर व्यू पॉइंट बना होगा जिसमें से झील अच्छे से दिखती होगी लेकिन ऐसा अनुमान करते हुये दो तीन मिनट ही हुये होंगे और जीपीस आंटी ने सारे कयासों को धता बताते हुये ऐलान किया अवलांची लेक तेरह किलोमीटर दूर है। अब हमारी परिस्थिति मरता क्या ना करता वाली हो गयी , पहले ही हम ऊटी से बीस किलोमीटर इंटीरियर में आ गये हैं। अभी तक तो झील का ना के बराबर दर्शन हुए और अभी अभी पता लगा कि तेरह किलोमीटर आगे जाना है। हमारे सामने सामने दो गाड़ियाँ यहाँ से वापस भी हो गयी लेकिन हमने सोच लिया जब इतना आ ही गये हैं तो जहाँ तक जीपीस रास्ता दिखा रहा है वहाँ तक तो जाते ही हैं। अब फिर से खटर पटर वाली सड़क आ गयी और दोनों तरफ घना जंगल। इतना घना कि उसके आगे बांदीपुर का जंगल भी फेल है। खैर अब जब आ गये हैं तो आगे तक तो जाना ही है। यहाँ से करीब दस किलोमीटर बाद वन विभाग का एक चेक पोस्ट मिला और थोड़ा पूछताछ कर के पता लगा यहाँ पर जंगल सफारी होती है। अब बताओ हम तो आये थे झील के सौंदर्य पर मन्त्र मुग्ध होने और पहुँच गये जंगल सफारी करने।
जंगल सफारी का तो बाद में देखा जाएंगे पहले कुछ पेट पूजा का जुगाड़ किया जाये । सफारी के टिकट काउंटर के पास में एक कैंटीन नजर आयी, जिसे देखकर ऐसा लगा जैसे किसी डूबती कश्ती को सहारा मिल गया हो। झटपट अंदर जा कर बैठ गये। अब कैंटीन वाले को जो लाने को कहो वो पहले से ही खत्म। अब हार कर उसको बोला जो तेरे पास है भाई वो ले आ और फाइनली प्लेन डोसा आ गया वो भी बिना चटनी सांभर का। कसम से बड़ा स्वाद आ रहा था उसमें बिना किसी चीज के भी। दो दो डोसे हम तो ऐसे मार गये जैसे ऊंट के मुंह में जीरा हो। किसी ने सच ही कहा है भूख मीठी कि भोजन मीठा। खाने का असल स्वाद तो तभी पता लगता है जब पेट में भूख ज्यादा हो। खाना खाते खाते हमने ये तय कर लिया जब इतनी मेहनत यहाँ तक आने में कर ली है तो अब जो ये दिखा रहे हैं उसे तो देखकर ही जायेंगे और टिकट काउंटर में जा कर चार लोगों के सफारी के टिकट ले लिये। सफारी क्या थी वैसे एक जीप में ले जा रहे थे जंगल में। ऐसी हजारों जीप में हम अपने उत्तराखंड में गये हैं पर वो कहते हैं ना नयी जगह जाने का उत्साह रहता है वो ही था। डेढ़ घंटे की इस सफारी में तीन पिट स्टॉप थे। पहले में हमें एक छोटे से झड़ने के पास रोक गया। यहाँ पर सामने से एक बड़ी सी घने पेड़ो वाली पहाड़ी दिख रही थी। इससे पहले भी बहुत पहाड़ियां देखी हैं हमने लेकिन इस पहाड़ी के जंगल में थोड़ा अंतर लगा, वो ये था कि यहाँ पेडों का आकर गोभी के फूल का जैसा था। मतलब इसे फूल गोभी के पेड़ों का जंगल भी कह सकते हैं वैसे इसका प्रसिद्ध नाम शोले का जंगल है। मन भरकर शोले का जंगल देखने के बाद हम आगे बढे और कुछ देर में हम अगले स्टॉप के रूप में माता भवानी के मंदिर में पहुँच गये। दर्शन कर के यहाँ वहाँ नजर डाली और सामने के पतले से दिखने वाले धारे में लिखी वार्निंग देखकर कुछ आश्चर्य होने लगा कि कैसे इतना पतला सा दिखने वाला धारा तीव्र वेग का हो सकता है। खैर इतना सोचने समझने में वक्त जाया ना करते हुये हम आगे बढे क्योंकि मन में अब तक इस छुपे हुये नगीने को देखने की इच्छा काफी जोर पकड़ गयी। आगे बढे तो ऑलमोस्ट क्या कहूँ समझ में नहीं आ रहा बिलकुल एक निर्जन सा इलाका दिखा, एक दम निर्जन से पहाड़ या कह सकते हैं रेगिस्तानी जगह। बिलकुल सुखी सुखी सी रौनक विहीन जगह लगी। सड़क में आगे बढ़ते बढ़ते वो जगह आ ही गयी। झील के चारों तरफ लाल मिटटी नजर आई और जहाँ तक नजर गयी वहाँ तक झील के नीले रंग के पानी के किनारे लाल मिटटी की परिधि जैसी लगी। मतलब झील का ओर-छोर कुछ समझ नहीं आया। बस इतना ही पता लगा कि जो भी हो जहाँ तक आये की पूरी मेहनत सफल हो गयी अल्टीमेट जगह लगी और इस झील का नाम भी पता लग गया अपर भवानी झील। कभी कभी गड़बड़ी से भी हम बढ़िया जगह पहुँच सकते हैं। झील के पास खूब देर तक बैठ कर हम यहाँ से वापस हो लिये । करीब पैतालीस मिनट में सफारी वाले ने हमें चेक पोस्ट पर छोड़ दिया। अभी भी हमको ऊटी पहुँचने के लिये तीस किलोमीटर जाना है और वो भी घने जंगल का रास्ता इसलिये यहाँ से जल्दी में आगे बढे। रास्ते में एक जगह से वो अवलांची झील भी नजर आई जिसको देखने के लिए हम आये, लेकिन अभी भी ये समझ नहीं आया कि वहाँ जाना कैसे संभव होता होगा। जल्दी से गाड़ी से उतर एक फोटो तो उसका लेना बनता ही है सो ले लिया और फिर ऊटी के लिए चल पड़े । अभी अभी बीस किलोमीटर का रास्ता बचा है। ऊटी पहुँचने तक रात ही हो गयी और अब तक ठण्ड भी बढ़ गयी और जल्दी जल्दी हम होटल के कमरे में पहुंचे। पहुँच के देखा तो चारों और अँधेरा दिखा कहीं कोई लाइट नहीं जली है,शायद होटल का केयर टेकर भी गायब है।फिर उसे फ़ोन कर के बुलवाया, तभी कमरे में जा पाये। आज भी ठण्ड के कारण बाहर जा के खाने की हिम्मत नहीं पड़ी और खाना कमरे में ही मंगवा लिया। अभी तक कल के लिये भी कुछ नहीं सोचा है कि कब निकलना है और क्या देखना है पर अब कुछ सोचने की हिम्मत नही लगी और आँखों में नींद सवार हो गयी। कल की कल देखेंगे सोचते हुये जैसे तैसे बिस्तर में पड़ गये।
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रास्ते में पड़ने वाले चाय बागान। |
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शायद कुछ बोवाई चल रही है। |
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झील तक जाने के रास्ते में पड़ने वाला घना जंगल। |
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चेक पोस्ट के पास बना गुम्बदनुमा टिकट काउन्टर, यहाँ से प्रति व्यक्ति डेढ़ सौ का टिकेट लिया। |
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फूलगोभी ना ना , वो हरी वाली क्या कहते हैं उसे ,अरे हाँ ब्रोकोली का जंगल। |
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छोटे छोटे झरने हैं। |
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मंदिर के पास में पड़ा छोटा सा पानी की धारा। |
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नंदी महाराज हैं |
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जय भवानी। |
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मंदिर के आसपास। |
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बड़े अच्छे लगते हैं ये पहाड़। |
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फाइनली झील दिखी। |
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मस्त जगह थी। |
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अवलांची झील जिसकी बदौलत हम अपर भवानी घूम आये। |
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इन पलों में मन करता है बस यहीं ठहर जाओ। |
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अब बस कोहरा भी छाने लगा चलो वापस चलते हैं। |
बहुत बढिया यात्रा।गूगल बाबा पर भरोसा करना सही नहीं है खासकर अंजान रास्तों पर।
ReplyDeleteखूबसूरत तसवीरों के साथ सुन्दर यात्रा वृतांत।
ReplyDeleteबढ़िया लिखा है हर्षा। फ़ोटो भी शानदार हैं।
ReplyDeleteयूं के मज़ा आ गया ये यात्रा वृत्तान्त पढ़ कर ! कुछ फोटो तो ऐसे हैं कि मानों स्वर्ग का ही दृश्य फोटो में उतार लिया गया हो। बधाई हर्षिता ! जी.पी.एस. पर भरोसा ठीक है पर स्थानीय लोगों से भी पुष्टि करते रहना सुरक्षित रहता है।
ReplyDeleteकभी कभी जो सोचा वो न हो और उस रास्तो से नयी जगह देखने को मिले इसका अनुभव बहुत अच्छा लगता है...ऊटी से हटकर कुछ दिखाना अच्छा लगा..बढ़िया लेखन...
ReplyDeleteमजा आया पढ कर। सुंदर पोस्ट
ReplyDeleteजी पी एस के भरोसे हम कई बार गच्चा खा गए । बढ़िया घुमक्कड़ी ,बढ़िया चित्र
ReplyDeleteजी पी एस के भरोसे हम कई बार गच्चा खा गए । बढ़िया घुमक्कड़ी ,बढ़िया चित्र
ReplyDeleteबहुत बढ़िया पोस्ट हर्षिता जी । फ़ोटो बहुत सुंदर लगे ।
ReplyDeleteहमारे लिये तो नई जगह लगी
सिर्फ एक अंजनी झील देखने का साहस सिर्फ हर्षा ही कर सकती है , जोरदार सफर, जंगल,और झील और फ़ोटू भी ☺
ReplyDeleteझील और चाय बागान सच में बहुत खूबसूरत लग रहे हैं ! मंदिर की संरचना जितनी सुन्दर है , उसके आसपास की हरियाली उसे और भी खूबसूरती प्रदान कर रही है ! अच्छा लिखा आपने हर्षिता जी
ReplyDeleteजबरदस्त बहुत खूबसूरत पोस्ट हर्षिता जी
ReplyDeleteबहुत सुंदर यात्रा संस्मरण लिखा आपने ।
ReplyDeleteमजा आ गया वाह वाह ।